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15 December, 2010

सांस अभी बाकी है

पी चुके हैं कितनी ही फ़िर भी
प्यास अभी बाकी है
अमावस्या और पूर्णिमा के बीच
विश्वास अभी बाकी है
झूठी वर्जनाओं से
सन्यास अभी बाकी है
अपनी संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण की
तलाश अभी बाकी है
कुछ रिश्तों में
अहसास अभी बाकी है
कहीं न कहीं कुछ
खास अभी बाकी है
बार बार मारे जाने पर भी
जीने की तलब है
इसीलिए तो ज़िंदगी में
सांस अभी बाकी है

13 December, 2010

जब-तब

जो कभी भाव नहीं पूछते
चुका देते हैं मुंहमांगे दाम
वे लोग!
नहीं होते आम
उन्हें पसंद और चीज़ों से मतलब हैं
भले ही कुछ भी हों दाम
वे कुछ भी
कभी भी खरीद सकते हैं
खरीदते ही हैं
जब-तब
हार ही जाते हैं
सारे कानून, अधिकार
प्रतिकार
जब-तब

11 December, 2010

लगेगी पार कैसे भला!

क्यूं रहते हैं बंद हमेशा
कुछ घरों के
दरवाजे और खिडकियां
कैसे कटती होंगी
अंधेरे, बंद मकानों में
सपनों से लकदक जिंदगियां
रोने कैसे देंगे वो खुलकर
औरों को
दबा लेते हैं जो अपनी ही सिसकिंया
मल्लाह ही लगेंगे
छेदने जिन्हें
लगेगी पार कैसे भला! वे किश्तियां

07 December, 2010

स्त्री! स्त्री होना चाहती है

स्त्री!
स्त्री होना चाहती है
हर बेहिसाबी का
हिसाब चाहती है
नहीं चाहती रोना-धोना,
स्वयं को खोना
रातों के अंधेरों में
चुपचाप, निर्विरोध
हमबिस्तर होना
रिश्तों को
सिर्फ़ नाम के लिए ढोना
स्त्री गूंगे होठों पर
जुबान, गान चाहती है
आंखों में अश्रु
जीवन की थकान नहीं
एक चिरंजीव
मुस्कान चाहती है
स्त्री कभी नहीं चाहती
पुरुष होना
अपना अस्तित्त्व खोना
स्त्री!
स्त्री ही रहना चाहती है
बस! अपने को कहना चाहती है
*******

05 December, 2010

क्या है उत्तर इस अनुत्तरित प्रश्न का

आज फ़िर फ़ेंक गया
कि फ़ेंक गयी
अलसुबह कि
आधी रात को
पता नहीं, कब?
एक नवजात
शहर के सुनसान इलाके में
मरा कि अधमरा
करता संघर्ष मृत्यु से
आज फ़िर हुयी भीड
गढी चटकारे ले ले कर
तरह तरह की कहानियां, बातें
कोसा निर्दयी बिनब्याही मां को
(सारी फ़ब्तियां, गालियां, फ़तवे)
सिर्फ़ उस मां को
किसी ने कुछ भी न कहा
उस
मक्कार धोखेबाज़ कसूरवार पिता को
क्या हो गया है
इस आदम जात को?
आखिर कब तक और क्यूं
नवजातों को यूं फ़ेंका, मारा जाएगा
उसे पाप पुकारा जाएगा
क्या सचमुच ही यह पाप है?
यह कैसा इंसाफ़ है?
एक मनचाहे सबंध की
क्या होगी हमेशा
यही परिणिति
एक निरपराध, असहाय
मासूम नवजात की
ऎसी गति, दुर्गति?
क्या कभी बदल पाएंगे हम
अपनी यह मति-वृति?
क्या है उत्तर
इस अनुत्तरित प्रश्न का
आखिर कब तक
भुगतेगा परिणाम
एक नवजात
एक क्षणिक आवेग, एक व्यसन का?
*******

29 November, 2010

सच जानना आसान है पर....

देखो यार!
तुम उसे वह सब मत बताना
जो मैंने बताया है तुम्हें
वह भी पक्का यार है अपना
पर
उसके मन में कोई बात
खटती नहीं है
जानता हूं
उसके पेट कोई पाप नहीं है
पर हर बात
हर जगह
हर किसी के सामने कह देना भी
कोई बात नहीं है...
सच जानना आसान है
पर
सच पचाना
स्वीकारना
कहना, सुनना
कितना मुश्किल!
इसीलिए तो हम
कितने ही सच
जानबूझ कर छुपा जाते हैं
एक दूसरे के कानों में फ़ुसफ़ुसाते हैं
कहने की जगह गूंगे
देखने की जगह अंधे
सुनने की जगह बहरे हो जाते हैं

गज़ल के बहाने

बात बात पर सवाल करता है
क्या वह सच में मुझसे प्यार करता है

लफ़्ज़ों से दिल पे मार करता है
क्या वह सच में मुझसे प्यार करता है

निजता को सरे बाज़ार करता है
क्या वह सच में मुझसे प्यार करता है

मारता है खुद भी मरता है
क्या वह सच में मुझसे प्यार करता है

सपनों को तार तार करता है
क्या वह सच में मुझसे प्यार करता है

25 November, 2010

राग विदेश

नहीं समझे!
समझेंगे भी नहीं
क्यूंकि यह
राग देश नहीं
राग विदेश है
इसमें कोमल,शीतल प्रपात नहीं
दहकते अंगारे, धधकती आग है
क्या राग है....
नहीं किसी सप्तक में
इसके सुर
समझ से बाहर हैं
इसकी खूबी और गुर
इसकी हर ताल है
बेताल
लेकिन फ़िर भी बचाए है
धमाल
दीवाना बनाएं हैं
हर किसी को
जिसे देखो गाता(चिल्लाता) मिलेगा इसी को
इसी के रंग में रंग जाओ
सब गाओ!
अपने गले तराश कर
क्यूंकि-
इसी में तो छुपे हैं भविष्य के
सारे आस्कर.....

21 November, 2010

स्वस्थ नहीं हैं शब्द

कई सालों से
स्वस्थ नहीं हैं शब्द
न जाने किन किन बीमारियों ने
जकड लिया है उनको
अंग्रेजीदां डाक्टर भी आ रहे हैं
अपनी वैश्विक विशेषग्यताओं से लकदक
नई नई विधियों से
शब्दों की शल्य क्रिया किए जा रहे हैं
शब्द तडफ़डा रहे हैं
कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं
अपने आपको असहाय पा रहे हैं
होते जा रहे हैं निरीह निष्प्राण
किए जा रहे हैं नित नए परीक्षण
होता जा रहा है उनके अर्थ का क्षरण
जाने और कितना
कब तक सहना होगा
क्या कोई समझ पाएगा शब्दों की पीडा को
या सिर्फ़ मूक दर्शक बन
बस! देखना होगा
आधुनिक शब्द शल्य कर्ताओं की
इस चिकित्सकीय क्रीडा को

16 November, 2010

हर बार की तरह

हर बार की तरह
इस बार भी चला गया वह
झगडा करके
हर बार की तरह
इस बार भी कोई खास वजह नहीं थी
झगडे की
उसे झगडना ही था
सो झगडा
उसे जाना ही था
सो गया
फ़िर आने के लिए
फ़िर झगडने के लिए
नया कुछ भी नहीं था
न वह
न मैं
न ये झगडे
न यह आवाजाही
सिवा इसके कि
प्यार से
प्यार की
एक नई पहचान हो रही थी

12 November, 2010

ये स्त्री जात......

स्त्री सबसे बांटती है
अपने स्त्री होने का सुख
पर नहीं बांटती
किसी से भी
अपना एक भी दुख
स्त्री
सब कुछ सुनती है
पर
कहती कुछ भी नहीं
कभी किसी से
कितना बोलता है
स्त्री का मौन
पर कौन सुनता है
खुद
स्त्री भी नहीं सुनती
अपने मन की कोई बात
आखिर क्यूं है ऎसी?
ये स्त्री जात......

09 November, 2010

याद बहुत आते हैं कुछ लोग

याद बहुत आते हैं कुछ लोग
तस्वीर हो जाने के बाद
हम कितने अकेले हो जाते हैं
उनके अचानक,
चले जाने के बाद
कल ही तो मिले थे
एकदम ठीक ठाक
कितनी मज़ेदार थी
उनसे मुलाकात
फ़िर ऎसा क्या हो गया
यह अकस्मात
उन चेहरों से हम
अक्सर बतियाते हैं
स्मृतियों में कितने ही गवाक्ष
अनायास खुल जाते हैं
होठों से निकल पडती है
उन्हीं की कही कोई बात
बात बात में हो जाती है
बस, उन्हीं की बात
उठने, बैठने, चलने,
बोलने का ढंग
सजीव हो उठते हैं
तस्वीर के हर रंग
करने लगते हैं अनायास
हम उनसे संवाद
रह रह कर यूं
सताती उनकी याद

06 November, 2010

हे ईश्वर!

हे ईश्वर!
लोग कहते हैं
तुम सब देखते हो
कुछ नहीं छिपा तुम से
मैं बचपन से ही
देखता आया हूं तुझे
पर क्या तुमने भी कभी
देखा मुझे?
पता नहीं
किसने थमायी थी
मेरी अंगुली, तुझे
उस भूल ने आज तक
नहीं जीने दिया चैन से मुझे
मैंने कभी, कहीं नहीं देखा तुझे
पर देखता आया हूं
तुम्हारे ठाठबाट और मज़े
हर दिन सजेधजे
सबको पजाए रहते हो
पर खुद!!
खुद आज तक कहीं नहीं पजे

01 November, 2010

ज़िंदगी के एलबम में

ज़िंदगी के एलबम में
कुछ तस्वीरें
होती हैं कितनी सुंदर
जब तब
आ ही खडी होती है सामने
साल, महिने
समय का हर बंध लांघकर
हम
जीने लगते हैं पुन:वे पल
अपनी स्मृतियों के आंगन
उन तस्वीरों के साथ
अपने ही भीतर
कितने प्यारे,
जरुरी है ये एलबम
ज़िंदगी में
ज़िंदगी के लिए
कितना तडफ़डाती है ज़िंदगी
ऎसे एलबमों के लिए
तस्वीरों में कैद पलों के साथ
फ़िर जीने के लिए

29 October, 2010

जिस दिन गई थी तुम

जिस दिन गई थी तुम
चली गई थी
जीवन की खुशी, होठों की हंसी
निजता के अतरंग क्षण
अभीभूत अनुभूतियां
आलौकिक स्मृतियां
वर्तमान के सुखन
भविष्य के स्वप्न
और सारे स्पर्श,
हम दोनों के बीच के
अलौकिक संवाद, विवाद
जिनसे होता था सांसो में
एक सांगितिक नाद
अकेली कहां गई थी तुम
तुम्हारे साथ ही तो
चला था
मेरी बची हुई उम्र का मौन
पूछता-
मैं कौन
तुम कौन
इस अधूरे रहे प्रेम का
पूरा जीवन
जिसमें जिए थे हम
एक दूजे के लिए
और
तुम्हारे अनुसार
हम कुछ भी नहीं
एक दूजे के
जानते हुए भी
हो जाएं अब से
अनजान एक दूजे से
यह असंभव
कैसे होगा संभव
तुम्हें जानती भी नहीं कि
जिस दिन से गई हो तुम
सो नहीं पाया ठीक से
चाय भी नहीं बनती अच्छे से
रोटीयों के साथ साथ
जल जाती है अंगुलियां
बंद ही नहीं होती हिचकियां
चिडचिडा हो गया है घर
आ बसे हैं
जाने कितने डर
आंखे लगी रहती है दरवाज़े पर
हाथ में थामें हाजिरी रजिस्टर
क्या तुम्हें!
जरा भी तरस नहीं आता
अपनी अनुपस्थिति पर?

26 October, 2010

हम कितने बेचारे

कभी सोचते थे
घर बैठे बैठे
चलो बाज़ार हो आएं
थोडा घूम आएं
कैसे बदल गया अचानक
जीवन का मिज़ाज
घर ही में आ घुसा है
शहर, देश ही नहीं,
पूरे विश्व का बाज़ार आज
खो गई है भीड में
सारी निजता
घर घर में घर कर रही है
मानसिक वैचारिक दरिद्रता
मरने, झरने लगी है
मनुता, अस्मिता
उफ़! यह रिक्तता
कैसी विवशता
हर घर बाज़ार
हर शख्स औज़ार
बचपन से पचपन
सब अभिनेता
क्रेता विक्रेता
इश्तिहार
जीत हार
इतने अनार
सब बीमार
सब कुछ स्वीकार
कहां है प्रतिकार
हमारे हाथ, साथ
सिर्फ़
प्राणहीन नारे हैं
हम
कितने बेचारे, बेसहारे हैं

22 October, 2010

राह कभी नहीं भूलती

राह कभी नहीं भूलती
उन कदमों को
जो बनाते हैं उसे राह
हर राह के पास है
एक इतिहास कदमों का
कदम जो चलते हैं
कदम जो राह बनाते हैं
अब कहां रहे कदम
राह बनाने वाले
रह गए सिर्फ़
लीक पीटनेवाले
हाथों में झण्डे वाले
वे कदम चाहते ही नहीं
अपनी कोई राह बनाना
खुद को आज़माना
बस! चले जा रहे हैं
किसी भी राह पर
क्यूं? पता नहीं
कहां? पता नहीं

18 October, 2010

दौड जरुरी है

मेरे पास नहीं है अवसर कि
इंतज़ार करुं अवसर का
फ़ितरत ही नहीं कि
किसी को औज़ार बनाऊं कि
बनूं किसी का औज़ार
जानता हूं, बहुत कठिन है
किसी से भी निभाना
कोई चाहता ही नहीं
किसी के कुछ काम आना
बहानों का ज़माना है
सबके पास है
कोई न कोई बहाना
अंगुली करने से फ़ुरसत मिले तो
किसी की अंगुली थामें
पता नहीं किन हाथों में हैं
हम सब की लगामें
आह!
कितनी कठिन है राह
पढ लिए सफ़लताओं के साधन
बदल गए
जीवनमूल्य सरोकार, संसाधन
आजमा लिए बाबाओं के सारे नुस्खे
भूखे आज भी है भूखे
क्यूं रुकें, किसके लिए रुकें
क्यों चूकें, किसके लिए चूकें
आओ जागें! हम भी भागें!
भागना मजबूरी हैं
काल से ताल के लिए
होड जरुरी है
दौड जरुरी है

14 October, 2010

कुछ आहटें

कुछ आहटें
कितनी अधिक परिचित होती है
आईने सी
कभी भी कहीं भी
आ धमकती है
सबके सामने
सबके बीच
बेआवाज़
लेकिन
कितना कोलाहल भर देती है
किसी को पता भी नहीं चलता
हम सबके साथ
सबके बीच होते हुए भी
किसी के साथ
किसी के बीच नहीं है
अपनी ही किसी
आहट के बीच,
कितनी आहत के साथ हैं

10 October, 2010

शैन: शैन:

नया
पहना
मैला किया
धोया, सुखोया
फ़िर पहन लिया
फ़ट गया तो
फ़िर नया,
कितने रंग,
कितने ढंग
कितने दिन
किसके संग
फ़िर गया
फ़िर नया
वही प्रक्रिया
पुन: पुन:
यूंही
झरता जाता है
शैन: शैन:

20 August, 2010

बातें हकों की

छोडो बातें हकों की
नेतागिरी है सिर्फ़ नफ़ों की
नारे सिर्फ़ नारे हो गए
संगठन बेचारे हो गए
मशालें अब कौन थामे
हाथ हलकारे हो गए

ज़िंदगी का मतलब
सिर्फ़ सांसे लेना हो गया
रगों का खून,
लाल रंग हो के रह गया
अर्थ और स्वार्थ के
वारे न्यारे हो गए

ज़ुबां बेज़ुबान,
कान भी अकान है
बाज़ारों के मकडजाल में
खोया, उलझा इंसान है
हम कितने मजबूर
बेसहारे हो गए

15 August, 2010

पंद्रह अगस्त

सपने त्रस्त
हौसले पस्त
हम सब अभ्यस्त
मस्त हो रही
पंद्रह अगस्त

जीवन है सख्त
कितना कंबख्त
नीरस, विरक्त
मस्त हो रही
पंद्रह अगस्त

शासक सशक्त
अपने में व्यस्त
मतलबपरस्त
मस्त हो रही
पंद्र्ह अगस्त

कंगूरे ध्वस्त
सूरज है अस्त
कैसा ये वक्त
मस्त हो रही
पंद्रह अगस्त

04 August, 2010

सैंग कैवै

सैंग कैवै-
लिखो राजस्थानी
सीखो राजस्थानी
म्हारो बी जी
घणो ईज तडफ़ा तोडै
लिखूं राजस्थानी,
बोलूं राजस्थानी
सीखूं राजस्थानी
पण जद देखूं च्यारूंपासी
आवै म्हनै हांसी...
राजस्थानी रा झंडा च्यारुं कानीं
पर किण सांचै हियै, मूंडै राजस्थानी
लिखारा लिखै घणी ईज राजस्थानी
पण भणै कुण
लिखारा ईज नीं भणै
लिखारां री लिखी राजस्थानी
न नार राजस्थानी, न भरतार राजस्थानी
न घर राजस्थानी, न बाजार राजस्थानी
न पैरूंकार राजस्थानी न सरकार राजस्थानी
मायड. भासा रै हक री आ लडाई
तद तांई लागै थोथी
जद तांई नीं आवै राजस्थानी रा लाडेसरां रै हाथ
राजस्थानी री पैली पोथी
वगत रो तकादो
खोसनै खावै जिको जीत में रैवै
मंगतां नै सापतो लाडू
कोई नीं देवै...

21 July, 2010

कितना मुश्किल है

मैं अंधेरे से कभी नहीं डरता
अंधेरा,
अंधेरा ही होता है
इकसार
पर बहुत डराती है
रोशनियां
रोशनी
कर देती है चकाचौंध
अपनी भांत भांत की रंगीनियों से
भांत भांत के बिम्बों से
भांत भांत के रूपों से

मैं नहीं होता किसी रोशनी से
खुद रोशन,
नहीं चाहता किसी को डराना
कितना मुश्किल है
अंधेरे के साथ साथ
खुद अंधेरा हो जाना
रोशनी की चकाचौंध से
खुद को बचाना!!

16 July, 2010

शहर में लड़की

शहर में लड़की
जब भी आती है निकल कर
घर से बाहर
शहर की गली-सड़क-चौराहे पर
लड़की नहीं होती
मेनका होती है
और -
हर गली,सड़क और चौराहा
जहां-जहां से होकर गुजरती है लड़की
होता है-
विश्वामित्रों की भीड़ से अटा
एक तपोवन

14 July, 2010

अचिर मौन का चिर संवाद

जिसे
जो लिखना है
लिखे
जहां
जैसे छपना है
छपे
जहां
जैसे बिकना है
बिके
प्रार्थना इतनी भर
आदमियत रहे
आदमी दिखे
लिख सके तो-
अपने आपको
सच सच लिखे,
लिखने का आगाज़ हो जाएगा.
लिखा हुआ हर सच्चा शब्द,
उसके अचिर मौन का
चिर संवाद हो जाएगा.

12 July, 2010

हम भी मर जाएंगे

क्यूं छोडें अपनी ज़मीं
क्यूं छोडें अपना आसमां
क्यूं तोडें खुद से यकीं
क्यूं छोडें अपना रास्ता
किया क्या हासिल और क्या कर लेंगे
क्या बदला है और क्या बदल देंगे
कितने तमगे लेंगे,कितने देंगे
किसकी जय बोलेंगे,किससे जय बुलवाएंगे
अपना ज़मीर मार, कितना जी लेंगे
सब मर जाते हैं, हम भी मर जाएंगे

10 July, 2010

उम्मीद

वो कत्ल करते रहते हैं
हम रोज़ मरते रहते हैं
वो बच निकलते हैं
हम भुगतते रहते हैं
अदालतें हैं, हाकीम हैं और गवाह भी
ताउम्र कटघरे बदलते रहते हैं
इंसाफ़ मिलता है नाइंसाफ़ियों को
फ़िर भी
इस नाउम्मीदी व्यवस्था से
उम्मीद के सहारे
ताज़िंदगी
हम उम्मीद करते रहते हैं

08 July, 2010

शहर में लड़की

शहर में लड़की
खुद बताती है
वह लड़की है
उसने हटवा दिए हैं सारे पर्दे
वह जान गई है सब रिश्तों की गहराई
वह पढ़ चुकी है हर किताब की ऊंचाई
उसने नाप ली है हर हद की लंबाई-चौड़ाई
अब वह नहीं रहती
स्कूल-कॉलिज की चारदीवारी में
वह आने लगी है
अपने मनचाहे पार्क-रेस्त्रां-बाज़ारों में
कहां? कब? किसके साथ?
प्रश्न बेमानी है
लड़की जाग चुकी है
अपना हक मांग चुकी है
हर काम सोच-समझ कर करती है
बच्ची नहीं है
सयानी है।

07 July, 2010

छूटे हुए संदर्भ

जहां पहुंच कर
होंठ हो जाते हैं गूंगे
आंखें अंधी और कान बहरे
समझ,नासमझ
और मन
अनमना
पूरी हो जाती है हद
हर भाषा की
अभिव्यक्ति बेबस
बंध, निर्बंध
संवेदन की इति से अथ तक
कविता, कहानी, उपन्यास
लेखन की हर विधा से बाहर
जो नहीं बंधते किसी धर्म,संस्कार,
समाज, देश, काल, वातावरण जाल में
नहीं बोलते कभी
किसी मंच, सभा, भीड़, एकांत,
शांत-प्रशांत में
भरे पड़े हैं
जाने कहां-कहां
इस जीवन में
इसी जीवन के
छूटे हुए संदर्भ

04 July, 2010

दिल्ली

दिल्ली
केवल नाम नहीं है किसी षहर का
पहचान है एक देष की
प्राण है एक देष का
यह अलग बात है-
दिल्ली में एक नहीं
कई दिल्लियां हैं-
पुरानी दिल्ली, नई दिल्ली,
दिल्ली कैंट, दिल्ली सदर आदि- आदि
हर दिल्ली के अपने रंग,
अपने कानून- क़ायदे
आपकी दिल्ली, मेरी दिल्ली
ज़ामा मस्ज़िद वाली दिल्ली
बिड़ला मंदिर वाली दिल्ली
शीशगंज गुरूद्वारे वाली दिल्ली
चर्चगेट वाली दिल्ली
साहित्य अकादमी वाली दिल्ली
हिन्दी ग्रंथ अकादमी वाली दिल्ली
एनएसडी वाली दिल्ली
जवाहरलाल नेहरु विष्वविद्यालय वाली दिल्ली
महात्मा गांधी विष्वविद्यालय वाली दिल्ली
दिल्ली की सोच में
दिल्ली दिल वालों की है
दिल्ली से बाहर की खबर के अनुसार
दिल्ली दिल्ली वालों की है
दिल्ली किसकी है?
इस प्रश्न का सही- सही उत्तर
स्वयं दिल्ली के पास भी नहीं है
वह तो सभी को अपना मानती है
कश्मीर से कन्याकुमारी तक
पहुंचता है दिल्ली का अख़बार
हर गली, गांव, शहर की दीवारें उठाए हैं
दिल्ली के इष्तहार
आंखे देखती हैं- दिल्ली
कान सुनते हैं- दिल्ली
होंठ बोलते हैं- दिल्ली
सब करते हैं-
दिल्ली का एतबार
दिल्ली का इंतज़ार
दिल्ली की जयकार
पैरों में पंख लग जाते हैं
सुनते ही दिल्ली की पुकार
दुबक जाते हैं सुनते ही
दिल्ली की फटकार
दिल्ली की ललकार
सब को जानती है दिल्ली
सब को छानती है दिल्ली
सब को पालती है दिल्ली
सब को ढालती है दिल्ली
दिल्लीः
अर्थात् प्रेयसी का दिल
दिल्लीः
अर्थात् प्रेमी की मंजिल
दिल्लीः
अर्थात् सरकार
दिल्लीः
अर्थात् दरबार।

02 July, 2010

एक और प्रेम कविता

प्रेम
तुम केवल प्रेम क्यूं नहीं हो
क्यूं है तुम्हारे साथ
तुम्हारी चाह
तुम्हारी आह
क्यूं बेकल है हर कोई
जानने के लिए
तुम्हारी थाह

ओ प्रेम!
आखिर क्या है
तुम्हारा रूप, स्वरूप
तुम!
मौन
वाचाल
भीतर
बाहर
व्यक्त
अव्यक्त
निज
सार्वजनिक
क्या हो तुम?
क्या है तुम्हारी पहचान
कहां है तुम्हारा
उद्भभव, अवसान

प्रेम!
कहां कहां व्याप्त हो तुम
और कहां नहीं
सब करते हैं तुम्हारी बडाईयां
न जाने कितने
जीत, हार चुके तुम्हारे दम
अपनी जीवन लडाईयां
झेल चुके तन्हाईयां, रुस्वाईयां

और
आज भी जारी है अनवरत
न जाने कहां कहां
किस किस रूप में
कितने संग्राम
कत्ल ए आम

प्रेम!
तुम्हें शत शत प्रणाम
कितना छोटा
और आसान है
तुम्हारा नाम
पर
कितनी दुरुह,
दुर्लभ, दुर्गम
तुम्हारी राह
तुम्हारी चाह
अथाह!
जो पाए, बोराए
स्वांग रचाए
रंग में तेरे
रंग रंग जाए.........

26 June, 2010

एक कविता प्रेम पर

प्रेम
जो भी करता है
उसे अपना ही एक अर्थ देता है
किसी के लिए
राधाष्याम, मीरागिरधर,
सोहनीमहिवाल, हीररांझा,
ढोलामरवण है प्रेम
किसी के लिए
किसी को देखना भर प्रेम है
किसी को
किसी का अच्छा लगना
किसी के लिए
किसी की जान प्रेम है
तो किसी के लिए
किसी के साथ सोने की चाह भर है प्रेम
जितने प्रेम
उतने अर्थ
कुछ अनमोल
कुछ व्यर्थ
किसी के लिए ईष्वर
किसी के लिए भक्ति
किसी के लिए आसक्ति
किसी के लिए विरक्ति है प्रेम
मेरे लिए प्रेम है
एक आष्चर्य
शब्द व्यक्त से परे
एक ऐसा आष्चर्य
जो सिर्फ होता है
होता है
कहीं भी
कभी भी

भायला(राजस्थानी)

जद उणां सूंप्यो उणनै
मीठै पुरसारै रो धामो
बिचै री सैंग पंगतां डाकनै
वो पूग्यो ठेठ वीं पंगत
जठै उडीकै हा पुरसारै सारू उणरा
खासमखास भायला
भायला आखिर भायला हुवै
भायला नै बिसरायां किंया सरै
आडै वगत भायला ईज काम आवै
वडा वडा जीमणां में
भायला मिल जावै तो राम मिल जावै
भायला साथै जीमणै
अर
भायला नै जीमावणै में
खास आनंद आवै

22 June, 2010

पिता

पिता
तुम्हारे जाने के बाद
मैंने महसूसा
कितना जरूरी था मेरे लिए
तुम्हारा होना
तुम्हारा बिछौना
बात बात पर
रोकना, टोकना
कितना निश्चिंत
मुक्त था मैं
तुम्हारी छाया में
सुप्त था मैं
तुम चिता में चुपचाप
मैं चिंता में चुपचाप
तुम्हारा वह चिर मौन
कितना बोल रहा था
स्म्रतियों के कितने
अनगिन द्वार खोल रहा था
उन कुछ ही पलों में मैं
एक जीवन जी गया
कितनी खुशियां
वह एक आंसू पी गया
पिता!
अब मैं कभी नहीं सुन पाऊंगा
अपनी ही तरह का
मेरे लिए
तुम्हारा वह अलौकिक संबोधन
जिसे सुन
सब पूछ्ते थे
ओह!
यह नाम भी है तुम्हारा
आज सिर्फ़ तुम नहीं गए
चला गया तुम्हारे साथ ही
मेरा वह लाडेसर नाम भी
तुम्हारा झुरना,
मेरा झुरना था
तुम्हारा मरना
मेरा मरना है!!

20 June, 2010

ओ मेरे पिता

ओ मेरे पिता!
मुझे है पता
मैं कभी नहीं उतरा
तुम्हारी अपेक्षाओं पर खरा

कभी नहीं रख सका
तुम्हारी छांह में
खुद को हरा भरा
मैं कभी नहीं भूला पाता
हमेशा संदेहों से घिरा
तुम्हारा वह चेहरा!

ओ पिता!
मुझे बता!
मैं कितना रीता
कितना बीता

तुम्हें तो सब है पता
तुम हो पिता!

14 June, 2010

हम सब जीते हैं

सफ़ेदी की चमकार
ये अंदर की बात है
टेस्ट आफ़ इंडिया
कुछ मीठा हो जाए
हटके झटके
टेढे हैं पर मेढे हैं
भूख लगे तो बस...
क्या करें मानते ही नहीं बच्चे

कितने ही शैंपू काम लिए
बालों को लम्बे काले घने रखने के लिए
फ़िर कोई नया शैंपू आ धमकता है
एक नयी खासियत के साथ

कितने फ़ेसवाश काम लिए
चेहरे को खूबसूरत और हसीन बनाने के लिए
फ़िर कोई फ़ेसवाश आ धमकता है
एक नयी खासियत के साथ

कितनी साबुनें आजमायी
देह की ताज़गी के लिए
फ़िर कोई नई साबुन आ जाती है
ललचाने के लिए

कितने शक्तिवर्धक प्राश, कैप्सूल लिए
योग व्यायाम किए
इस काया को चुस्त दुरस्त दीर्घायु रखने के लिए
फ़िर कोई नया नुस्खा आ जाता है
भरमाने के लिए

खाने पीने, जगने सोने से लेकर
जीवन का हर क्रिया कलाप
संचालित है विग्यापनों के हाथों

केवल बच्चे ही नहीं
हम सब जीते हैं
विघ्यापित जीवन

12 June, 2010

अच्छे दिन

और अच्छे दिनों की
चाह,उम्मीद में
यूं ही चले जाते हैं
जाने कितने अच्छे दिन
हम देखते भर रह जाते हैं
गुजर जाते हर अच्छे दिन को
क्या होता है अच्छे से और अच्छा
कब किसने सोचा!
क्या हो गया है हमारे ज़ेहन को
क्यूं कोसते रहते हैं हमेशा
अपने वर्तमान को
बन बैठते हैं खुद ही,
खुद के भविष्यवक्ता

05 June, 2010

अभिमन्यु

और कितने झूठ
और कितने बहाने
और कितने समर्पण
सहने होंगे

आखिर कब तक
होंठ गूंगे, आंखें अंधी,
कान बहरे होंगे

किसके
भीतर की धधकती आग
बनेगी सबके हकों की मशाल

मनुष्यता का भख लेती
दानवी ताकतों के विरुद्ध
राजनीति, अपने हितों से ऊपर उठकर

कौन हूंकारेगा, लडे.गा?
अपना पहला पग धरेगा
निनाद, जयघोष करेगा

भेदेगा चक्रव्यूह,
बनेगा अभिमन्यु
बचेगा और बचाएगा हमें!!

15 May, 2010

बचपन

’बोई कट लम्बा है!
की गूंज के साथ
टेढी मेढी गलियों में,
आसमान में कटकर लहराती पतंग को
लूटने की होड में
अर्जुन की आंख मांनिद टक टक आंखे
ऊंची नीची छ्तों को लांघते
बेखौफ़ नन्हे नंगे पांव
कंटीले झाड की वो लम्बी टहनी थामे
कुछ नन्हे हाथ
आज भी है जस तस
स्म्रति पटल पर!
पर नहीं है आज
पतंगों भरा वो आसमान
’बोई कट लम्बा है!’ का गुंजान गान
सच! हमारे साथ साथ
कितना बडा कर दिया है हमने
हमारे बच्चों का बचपन

09 May, 2010

मां!

बचपन की जरूरत
ममता की मूरत है मां
धरती पर साक्षात
ईश्वर की सूरत है मां
स्नेह का आंचल
नज़र का टीका है मां
ग्यान की पहली अंगुली
जीवन का सलीका है मां
मां मीत मां प्रीत है
मां गीत है, संगीत है
मां को प्रणाम नमन
मां से ही है जीव और जीवन

मां!

मां!
तुमने बताया था मुझे
मेरी तुतलाती ज़ुबान से
निकला पहला शब्द
जिसे सुनते ही
भर लिया था तुमने अपने आंचल में
और चूम लिया था मेरा ललाट
वह अहसास तब भी अव्यक्त था
और आज भी
ठीक वैसे ही जैसे कि तुम! अव्यक्त
मैंने हमेशा ही कही तुम्हें अपने मन की
बिना जाने तुम्हारा मन
मैं कभी नहीं भूलता
मेरे सुख‍‌-खुशी पर तुम्हारे चेहरे की
वह चिर पावन मुस्कान
मेरे सर वह नेह भरा कोमल स्पर्श
मैंने कभी कुछ नहीं छिपाया अपना
तुमने कभी कुछ बताया अपना
तुम्हारा एक उम्र सा मौन
आज कितना बोलता है!!
मैं तुम्हें हमेशा सुनता हूं मां!
-नवनीत पाण्डे

04 May, 2010

बच्चा तो सिर्फ बच्चा था
मैंने ही उसे कहा- भिखारी कहीं का!
शर्म नहीं आती मांगते हुए
पर देता क्या हूं उसकी गरीबी को
सिवाय कुछ गालियों, उपदेशों के
हम भाषण देते हैं
बहुत ठाठ से दफ्तर में
कैंटीन वाले बच्चे के हाथ से
गर्म गर्म चाय, कैचोडी लेते हैं

20 April, 2010

मुश्किलें कहां नहीं है,
कहीं नहीं नहीं है, कहीं हां नहीं है,
कोई हमें ढूंढे, किसी को हम ढूंढे,
कोई यहां, कोई वहां नहीं है,
अपने ही कदमों पर, चलता है कोई और,
कहीं जमीं नहीं है, कहीं आसमां नहीं है,
सांस हर सांस को, रोज ये समझाती है,
जिंदगी इतनी आसां नहीं है
-नवनीत पाण्डे

21 March, 2010

पुरस्कार विवाद

केंद्रीय साहित्य द्वारा घोषित पुरस्कारों में राजस्थानी भाषा हेतु घोषित पुरस्कार विवाद अभी खतम भी नहीं हुआ और हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा घोषित पुरस्कारों में धांधली का मामला सामने आ गया है, यह हमारे साहित्य के लिए शुभ संकेत नहीं है. इस तरह पुरस्कार देने और लेने के मायने क्या रह जाते हैं, जब सब कटघरे में हैं.

एक लेखक की पहली प्राथमिकता क्या है? मेरे विचार से लेखन, अपनी पूरी ऊर्जा, प्रतिभा, क्षमता से ईमानदार से लेखन के अलावा कुछ हो ही नहीं सकता. पर न जाने क्यूं आज के अधिकतर लेखकों में यह प्राथमिकता अपवाद स्वरूप ही देखने को ही मिलती है. जैसे कि मैंने पहले भी कहा था आज का लेखन और लेखक प्रदूषित हो गया है और यह प्रदूषण किसकी देन है, बताने की जरूरत नहीं है, सब जानते हैं. आधुनिक भौतिक उपभोक्ता बाजारवाद के इस यु़ग में जहां व्यक्ति स्वयं एक वस्तु होता जा रहा है तो साहित्य उससे कैसे अछूता, बचा रह सकता है? आवश्यकता है तो बस ऐसी स्थिति में एक सच्चे और ईमानदार प्रयास के साथ सदाशयता से लेखक और लेखन को इस प्रदूषण से बचाने की. नित नये प्रायोजित व घोषित होनेवाले पुरस्कारों को पाने की होड ही शायद इसका एक मुख्य कारण है. ऐसे में क्या हमारा नैतिक दायित्व नहीं है कि शब्द की मर्यादा को बचाने के लिए हमें ऎसे कुकृत्यों की निंदा करते हुए ऎसे निर्णयों और निर्णय प्रक्रियाओं की ईमानदारी से खुलकर भर्त्सना करनी चाहिए

जिसे लिखना है, लिखे
छपना है, छपे
बिकना है, बिके
प्रार्थना इतनी भर
आदमियत रहे
आदमी दिखे

07 March, 2010

पिछले कई दिनो से नेगचार एनटिवायर्स पढने के बाद साफ दिख रहा है कि आज लेखक और लेखन कितना प्रदूषित हो गया है किस तरह एक ईमानदार मौलिक लेखक और उसका लेखन कुछ महिमामंडित तथाकथित मठाधीश न्यायाधीशों बौधिक दिवालियेपन स्वार्थ और महत्वाकांक्शाओं की भेंट चढ जाता है, यह दुभाग्य ही है कि हमारे देश में दिए जानेवाले अधिकतर पुरस्कार किसी न किसी विवाद और साजिश की छाया में घिरे होते है जिसकी वजह से पुरस्कार देने और लेने वाले दोनों की भावना के साथ साथ पुरस्कारों की विश्वश्नीयता भी आहत होती है हमारे भारतीय साहित्य में ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि सिर्फ कोई पुरस्कार विशेष लेने देने के लिए ही किसी लेखक विशेष को पुरस्क्र्त करने के लिए उससे लिखवाया गया या उसे उसके खेमे के यार दो़स्त निर्ण्णायकों द्वारा अमुक पुरस्कार के लिए अपनी पुस्तक सबमिट करने के लिए कहा गया और पुरस्क्रत कर भी दिया गया और उससे पहले और पुरस्कार मिल जाने के बाद उस भाषा में उस लेखक की अन्य रचना अपवाद स्वरूप ही देखने को मिलती है इससे पुरस्कार के साथ साथ वह लेखक संदेह के घेरे में आ ही जाएगा भले ही वह कितना ही ईमानदारी का दावा करे दुख की बात है कि स्व जनकवि हरी़श भादानी को जो पुरस्कार मिलते मिलते रह गया, वह भी साहित्य अकादेमियों और साहित्य के इन तथाकथित ठेकेदार भ्रष्ट बोतलबाज़ साहित्यकारों और उनके शागिर्दों के भ्रष्टाचार के इसी कमीनेपन का शिकार हुआ है और यह अपराध नया नहीं है और न ही अकेले हरीश जी इसके शिकार हुए हैं. इस प्रकरंण का सच सामने लाने के लिए जहां ने़गचार बधाई का पात्र है, वहीं कुछ प्रतिक्रियाएं बहुत ही निराश करनेवाली, समूचे साहित्यिक परिवेश और परिद्र्श्य का असल चेहरा सामने लाती है, कैसे हम वास्तविकता और सत्य को अनदेखा कर एक गलत निर्णय के विरोध की बजाए, पैरोकार के रूप में खेमों में बंट गए हैं और हमेशा की तरह यह उम्मीद भी बेमानी है कि इस विवाद का कोई असर, ईमानदारी, बदलाव निंर्ण्णय का पुनरावलोकन हमें देखने को मिलेगा. जैसा कि होता आया है, हम सब स्वीकार कर लेंगे. कोई कुछ बोलेगा तो उसे उसकी औकात याद दिला दी जाएगी जैसे भाई संजय पुरोहित ने राजस्थानी के वरिष्ठ साहित्यकार बी एल माली अशांत की ओर इशारा किया. क्या करें हम ऐसे ही हैं, राजस्थानी में एक कहावत है‍ ’वाह म्हारा भाई सप्पम पाट, मै थनै चाटू, थू म्हनै चाट’ हम भी तो लाईन में हैं न, किसी न किसी पुरस्कार की.
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