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07 March, 2010

पिछले कई दिनो से नेगचार एनटिवायर्स पढने के बाद साफ दिख रहा है कि आज लेखक और लेखन कितना प्रदूषित हो गया है किस तरह एक ईमानदार मौलिक लेखक और उसका लेखन कुछ महिमामंडित तथाकथित मठाधीश न्यायाधीशों बौधिक दिवालियेपन स्वार्थ और महत्वाकांक्शाओं की भेंट चढ जाता है, यह दुभाग्य ही है कि हमारे देश में दिए जानेवाले अधिकतर पुरस्कार किसी न किसी विवाद और साजिश की छाया में घिरे होते है जिसकी वजह से पुरस्कार देने और लेने वाले दोनों की भावना के साथ साथ पुरस्कारों की विश्वश्नीयता भी आहत होती है हमारे भारतीय साहित्य में ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि सिर्फ कोई पुरस्कार विशेष लेने देने के लिए ही किसी लेखक विशेष को पुरस्क्र्त करने के लिए उससे लिखवाया गया या उसे उसके खेमे के यार दो़स्त निर्ण्णायकों द्वारा अमुक पुरस्कार के लिए अपनी पुस्तक सबमिट करने के लिए कहा गया और पुरस्क्रत कर भी दिया गया और उससे पहले और पुरस्कार मिल जाने के बाद उस भाषा में उस लेखक की अन्य रचना अपवाद स्वरूप ही देखने को मिलती है इससे पुरस्कार के साथ साथ वह लेखक संदेह के घेरे में आ ही जाएगा भले ही वह कितना ही ईमानदारी का दावा करे दुख की बात है कि स्व जनकवि हरी़श भादानी को जो पुरस्कार मिलते मिलते रह गया, वह भी साहित्य अकादेमियों और साहित्य के इन तथाकथित ठेकेदार भ्रष्ट बोतलबाज़ साहित्यकारों और उनके शागिर्दों के भ्रष्टाचार के इसी कमीनेपन का शिकार हुआ है और यह अपराध नया नहीं है और न ही अकेले हरीश जी इसके शिकार हुए हैं. इस प्रकरंण का सच सामने लाने के लिए जहां ने़गचार बधाई का पात्र है, वहीं कुछ प्रतिक्रियाएं बहुत ही निराश करनेवाली, समूचे साहित्यिक परिवेश और परिद्र्श्य का असल चेहरा सामने लाती है, कैसे हम वास्तविकता और सत्य को अनदेखा कर एक गलत निर्णय के विरोध की बजाए, पैरोकार के रूप में खेमों में बंट गए हैं और हमेशा की तरह यह उम्मीद भी बेमानी है कि इस विवाद का कोई असर, ईमानदारी, बदलाव निंर्ण्णय का पुनरावलोकन हमें देखने को मिलेगा. जैसा कि होता आया है, हम सब स्वीकार कर लेंगे. कोई कुछ बोलेगा तो उसे उसकी औकात याद दिला दी जाएगी जैसे भाई संजय पुरोहित ने राजस्थानी के वरिष्ठ साहित्यकार बी एल माली अशांत की ओर इशारा किया. क्या करें हम ऐसे ही हैं, राजस्थानी में एक कहावत है‍ ’वाह म्हारा भाई सप्पम पाट, मै थनै चाटू, थू म्हनै चाट’ हम भी तो लाईन में हैं न, किसी न किसी पुरस्कार की.

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