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28 April, 2011

एक दु:स्वपन (मृत्यु के बाद का)

मृत्यु के बाद
जाने कहां
किस समय
दिन कि रात पता नहीं
मैंने पाया खुद को
अपने पूर्ववर्ती नामचीन
अग्रज कवियों के जमावड़े में
उन आलौकिक और स्मरणीय क्षणों में
मुझे मिला सुख
जय शंकर प्रसाद , निराला, पंत, गुप्त, हरिऔध,
भारती, महादेवी, मुक्तिबोध, अज्ञेय, रघुवीर सहाय,
शमशेर, केदार जी, बच्चन, नागार्जुन बाबा जैसी
और भी जाने कितनी दिव्य विभूतियों के सामीप्य
व सानिध्य का
सबने किया स्वागत आत्मीयता से मेरा
कहा एक स्वर में-
अपनी कविताएं पढिए
मैं अचंम्भित, शंकित, ठगा सा
मैं कविताएं पढूं इन विभूतियों के बीच?
प्रसाद जी ने सस्नेह रखा हाथ सिर पर और बोले-
डरो मत बेटे! यह परंपरा है
इससे हमें पता चलता है
हमारे यहां आने के बाद
वहां क्या चल रहा है

मैंने चारों ओर दृष्टि घुमायी
सब से मौन स्वीकृति पायी
और झिझकते झिझकते
पढने लगा कविताएं
एक दो तीन चार
पता नहीं कितनी लगातार
सुनी सभी ने चुपचाप
किसी ने
कहीं भी नहीं कहा वाह!
सब मौन रहे
मेरी चाहना मिले प्रतिक्रिया
कोई कुछ तो कहे
पर सब चुप अवाक
रहे थे मेरा चेहरा ताक
क्या ऎसी कविताएं लिखी जा रही है वहां?
प्रसाद जी ने छोड़ी लंबी श्वांस
प्रसाद जी! शायद आप कविताओं में
कामायनी तलाश रहे हैं!
कहते हुए निराला हंसे
राम की शक्तिपूजा भी तो नहीं इस में!
प्रसाद निराशा से बोले

गुरुवर! क्षमा
मैंने साहस से प्रतिकार किया
न आपको इसमें मुक्तिबोध की अंधेरे में का बोध होगा
न ही अज्ञेय की असाध्य वीणा या
आप में किसी अन्य की
कविताओं की ध्वनिसुनायी देगी
आपने अपने समय में
अपने समय को अपनी तरह लिखा
हम हमारे समय को
हमारी तरह लिख रहे हैं बस!
और कुछ नहीं

वहां इतना बुरा, दरिद्र समय आ गया है?
एक समवेत करुण गूंज के साथ ही
सब हो गए विलीन
अनंत में
रह गया अकेला मैं
अंत में
पता नहीं किस किसकी
क्या क्या प्रतिक्रियाएं आई होगी बाद में?
इस अधूरे दु:स्वप्न का अवसाद लिए
मैं अभागा!!
पूरी रात जागा

27 April, 2011

पहले से ही लिख दी गई है हार

अनहोनियों के होने भर के अंदेशे से
पाल बैठे हैं जाने कितने भय
हर तरफ़ संशय ही सशंय
कितने अर्थ ढूंढते हैं एक शब्द के
बरतते अपने अपने माफ़िक
बांचते बांचते मुस्कराहट चेहरों की
गढने लगते कथाएं
क्षुद्र मानसिकताओं की
रचने लगते डरावने चेहरे
अपनी भयग्रस्त
सोच के कैनवास पर
चुपचाप देखते हैं बेशर्मी से!
सोच के सामुहिक बलात्कार
चीख चीख कर बताते हैं
सारे नाम अखबार
व्यर्थ सारे प्रतिकार
पहले से ही लिख दी गई है हार
जय सरकार! जय सरकार!!

21 April, 2011

गज़ल जैसा कुछ



बजती है तेरी हंसी संगीत की तरह
गाता हूं तुम्हें मीत मैं गीत की तरह

देखने वाला, रह जाए बस देखता
दिल के अंजुमन में तुम, आती हो इस तरह

जाने कितने दिलों पर गिर जाती है बिजलियां
गेसू को अपने चेहरे पर, गिराती हो इस तरह

मदहोश हो जाता है हर शख्स होशवाला
मस्त नज़र के तीर जब, चलाती हो इस तरह

कोई कहे वाह! कोई कहे आह!
दिलकश अदा से धड़कनें, बढाती हो इस तरह

आता है दौड़ा दौड़ा हर दिल तेरी बज़्म में
दिल दिल से दिल तुम, लगाती हो इस तरह

बुझती ही नहीं कभी, बढती ही जाए प्यास
इतने प्यार से प्यार तुम, पिलाती हो इस तरह

कितना भी कहे ज़ुबां, होता ही नहीं बयां
प्यार में यार दिल ये, ज़ज़्बाती है इस तरह



अनछुई सी छुअन, छू छू जाती है जैसे
हर स्पर्श की स्मृतियां मुझे झन्नाती है ऎसे

बावला फ़िरे है कैसे, खूश्बू कहीं मिले है ऎसे
बरसे तेरी यादें रिमझिम, बरसती बारिश जैसे

दिन वो स्कूली सारे, वो छुप छुप करना इशारे
वो कट्टा कट्टी अनबन, रूठना मनाना कैसे

वो फ़िर कालिज में आना, थोड़ा खिल, खुल जाना
वो उल्लू बनना बनाना, मस्ती बदमाशियां ऎसे

आखिर जीत गए डर, तुम अपने घर, मैं अपने घर
न पलटे तुम इधर को, न ही मैं गुजरा उधर से

19 April, 2011

मेरा रिश्ता संज्ञाओं से नहीं - दो बालिका कविताएं



मेरा रिश्ता संज्ञाओं से नहीं
क्रियाओं से हैं
मेरा वास्ता मंजिलों से नहीं
रास्तों से हैं
अकेला तो कोई भी हासिल कर सकता है, कुछ भी
मेरा दोस्ताना तो काफ़िलों से हैं




देखा है....
पुजते मंजिलों को
रास्तों की कभी
जयकार नहीं देखी
क्या हुआ जो नहीं पहुंचे वहां तक
हौसलों की कभी
हार नहीं देखी

16 April, 2011

गज़ल के बहाने-५

मैं कब कहता हूं,मेरा लिखा कविता है, गज़ल है
लिखने की है हूंस, लिखना मेरा शगल है

मैंने कब कहा, पढना मुझे तुम
फ़िर भी तुमने पढा, मेरा लिखना सफ़ल है

प्रेम है पड़ोसियों से पर रहे अपने घर में
क्यूं तकें पड़ोसियों को, हमारा घर भी तो महल है

आती ही नहीं कलमबंदी, न ही बंधा किसी बाड़े में
अनुभूत बीज बोया कलम हल ने, वही मेरे खेत की फ़सल है

14 April, 2011

गज़ल के बहाने-४

कितनी भली हैं ये खामोशियां
बातें करती है उदासियां

जब भूला दिया याद करनेवालों ने
क्यूं आती है हिचकियां

आंखें रोना चाहती है धाड़ धाड़
रोने ही नहीं देती सिसकियां

जब पैदा करनी होती है दूरियां
गिनाने लगते हैं मजबुरियां

कहां से आएगी रोशनी, ताजी हवा
जब खोलेंगे ही नहीं खिड़कियां

जब तक बंधी है पाल किनारे से
पार कैसे पहुंचेगी कश्तियां

09 April, 2011

गज़ल के बहाने-३

पहचानते हैं चोरों को पकड़ नहीं सकते
मजबूरी है राजा को नंगा, कह नहीं सकते

जानते हैं जगह जगह से, टपकती है छत
रेत की सीमेण्ट से, गढ्ढे भर नहीं सकते

नीम हकीमों के हाथों में, नब्ज़ इस वक्त की
इनके दिए जहर, दवा बन नहीं सकते

भौंकनेवालों को मिल जाते हैं टुकड़े
पालतू हो जाते हैं, फ़िर भौंक नहीं सकते

चोरों को पकड़नेवाले ही जब चोर हैं
चोरों के घर चोर, चोरी कर नहीं सकते

बैसाखियों पर राज, बैसाखियों पर देश
बिन बैसाखी चंद कदम, चल नहीं सकते

हर उम्मीद बेमानी हर मंजिल है दूर
अपने ही फ़न, हम कुचल नहीं सकते

08 April, 2011

मुखौटे लगाना भूल गए

याद करते करते
कई चीजें नहीं रहती याद
कितना भी खपाएं दिमाग
आती ही नहीं याद
किसी को कुछ
बताना भूल गए
किसी से कुछ
पूछना भूल गए
औरों को कहते रहे
सावधान!
ध्यान रखना!
बचना!
खुद ही लेकिन
खुद को
बचाना भूल गए
भूल कर भी जहां
कहने नहीं
छिपाने थे सच
चेहरे पर यारों!
मुखौटे लगाना भूल गए

05 April, 2011

गज़ल के बहाने-२

एक

उल्टे सीधे नम्बर बोलता है
जुआरी लगता है


मजमा लगाए बैठा है
मदारी लगता है


सबको सलाम ठोकता है
दरबारी लगता है


ईश्वर को गाली देता है
भिखारी लगता है



दो



अपना ही चेहरा भूल जाता है
नित नए आईने आजमाता है

हरेक पर अंगुली उठाता है
बाकी किधर है, भूल जाता है

होश की बात करे भी तो कैसे
बस थोड़ी में ही बहक जाता है

कैसी फ़ितरत बना ली है अपनी
देखने, सुननेवालों को तरस आता है

03 April, 2011

इस बार जब देखो

इस बार जब देखो
बूंदों को बरसते हुए
सुनना!
बूंद बूंद एक गाना है

इस बार जब देखो
पंछियों को उड़ते हुए
देखना!
आसमान तुम्हारा है

इस बार जब देखो
किसी चिड़िया को
कबूतरों के पालसिये में नहाते हुए
चुपचाप नहाने देना!
यह अद्भुत अविस्मरणीय नजारा है

इस बार जब देखो
दिन को रात की आगोश में जाते हुए
याद रखना!
जाते को आते का सहारा है

इस बार जब देखो
कोई शव जाते हुए
मत भूलना!
यह भी एक इशारा है

01 April, 2011

घर - दो कविताएं

घर-१

पहले था
एक खुला द्वार
सबके लिए
द्वार के पार
घर की बैठक
बैठक के पार
आंगन
आंगन के पार
भरा पूरा घर

अब-
एक कालबेल है
एक दरवाजा
दरवाजे के पार
ड्राईंग रूम
ड्राईंग रूम में
कई तरह की पेंटिंग्स
फ़िर लॉबी
जिसमें होती है
लॉबिंग
घर के खिलाफ़

घर-२

जहां खड़े हो
वह फ़र्श नहीं छत है
नीचे वाले की
जिसे तुम छत समझ रहे हो
वह फ़र्श है ऊपर वाले का
हंसने की बात नहीं है
यह महानगर है
यहां जो दिखता है
वह होता नहीं
जो होता है
दिखता नहीं
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