मां को
कुछ नहीं बताता था
फ़िर भी
पता चल ही जाता था
आसानी से
मां को
मेरा हर झूठ
पकड़ लेती थी मां
मेरी हर चोरी
सब पता रहता था
मां को
मैं क्या कहता हूं
क्या करता हूं
क्या है मेरे मन में
कई बार
मां ने
मारा मु्झे
अपने ही तरीके से
सुधारा, संवारा मुझे
कभी-कभी अनायास
जब भी हाथ
माथे के बायीं ओर जाता है
मां का लगाया काला टीका
कोमल स्पर्श याद आता हैं
मैं कुछ भी नहीं कर पाया
मां के लिए
पर मां!
कितना कुछ कर गयी थी
मेरे लिए
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27 October, 2011
19 October, 2011
तुम्हें देखते हुए
तुम्हें देखते हुए
मैंने देखा!
मैं अकेला नहीं था
तुम्हें देखनेवाला
देख रहा था रास्ता
चलते-चलते
देख रहा था वह पेड़
जिसने बुला लिया था
तल्ख धूप से बचाने के लिए तुम्हें
अपनी छांह तले
देख रहे थे परिंदे
जो उड़ते-उड़ते
बैठ गए उसी पेड़
तुम्हें देखने
पर तुम सबसे अनजान
अपने ही में खोयी
जागते में सोयी
पलकभर भी न देखा
देखते हुए रास्ते को
पेड़ को
परिंदों को
और मुझे भी
जो कभी भी
अकेला नहीं था
तुम्हें देखनेवाला
मैंने देखा!
मैं अकेला नहीं था
तुम्हें देखनेवाला
देख रहा था रास्ता
चलते-चलते
देख रहा था वह पेड़
जिसने बुला लिया था
तल्ख धूप से बचाने के लिए तुम्हें
अपनी छांह तले
देख रहे थे परिंदे
जो उड़ते-उड़ते
बैठ गए उसी पेड़
तुम्हें देखने
पर तुम सबसे अनजान
अपने ही में खोयी
जागते में सोयी
पलकभर भी न देखा
देखते हुए रास्ते को
पेड़ को
परिंदों को
और मुझे भी
जो कभी भी
अकेला नहीं था
तुम्हें देखनेवाला
09 October, 2011
दो कविताएं
अंतहीन
जो देता है मुझे
क्या देता हूं मैं उसे
सिवाय कुछ
संभावनाओं के
जो देने ही से आरंभ होकर
देने पर ही
कब हुयी खतम
देना
और देते रहना
अंतहीन
जैसे
लेना
और लेते रहना
अंतहीन
*****
अपना यह घर!
तुम लिखते
बुनते जाल
रचते-रचाते
तिलिस्म शब्दों के
भरमाते
खुद को
सबको
मैं लिखता
अर्थ!
रचता
भीतर का बाहर
बाहर का भीतर
कुछ भी नहीं
सांस से इतर
तुम भटकते
सारा जहान
अनदेखा कर
अपना घर
ढहाते-बनाते
नित नए घर
पर मुझे तो
हर आंख में
दिखता
एक घर
जोहता बाट
एक घर की
जरा देखो तो सही
एक बार
अपना यह घर!
*****
जो देता है मुझे
क्या देता हूं मैं उसे
सिवाय कुछ
संभावनाओं के
जो देने ही से आरंभ होकर
देने पर ही
कब हुयी खतम
देना
और देते रहना
अंतहीन
जैसे
लेना
और लेते रहना
अंतहीन
*****
अपना यह घर!
तुम लिखते
बुनते जाल
रचते-रचाते
तिलिस्म शब्दों के
भरमाते
खुद को
सबको
मैं लिखता
अर्थ!
रचता
भीतर का बाहर
बाहर का भीतर
कुछ भी नहीं
सांस से इतर
तुम भटकते
सारा जहान
अनदेखा कर
अपना घर
ढहाते-बनाते
नित नए घर
पर मुझे तो
हर आंख में
दिखता
एक घर
जोहता बाट
एक घर की
जरा देखो तो सही
एक बार
अपना यह घर!
*****
01 October, 2011
स्री जो है
कहती नहीं
पालती है
भीतर-भीतर
सारे दुख
स्री जो है
भरती नहीं कभी भी
बस!
रीतती जाती है
सबको भरा रखने में
स्री जो है
पूछा ही नहीं किसी ने कभी
क्या है चाहें, इच्छाएं
हिस्से में सिर्फ़ रुदन, मौन
बांटती मुस्कराहटें
स्री जो है
पालती है
भीतर-भीतर
सारे दुख
स्री जो है
भरती नहीं कभी भी
बस!
रीतती जाती है
सबको भरा रखने में
स्री जो है
पूछा ही नहीं किसी ने कभी
क्या है चाहें, इच्छाएं
हिस्से में सिर्फ़ रुदन, मौन
बांटती मुस्कराहटें
स्री जो है
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