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29 October, 2010

जिस दिन गई थी तुम

जिस दिन गई थी तुम
चली गई थी
जीवन की खुशी, होठों की हंसी
निजता के अतरंग क्षण
अभीभूत अनुभूतियां
आलौकिक स्मृतियां
वर्तमान के सुखन
भविष्य के स्वप्न
और सारे स्पर्श,
हम दोनों के बीच के
अलौकिक संवाद, विवाद
जिनसे होता था सांसो में
एक सांगितिक नाद
अकेली कहां गई थी तुम
तुम्हारे साथ ही तो
चला था
मेरी बची हुई उम्र का मौन
पूछता-
मैं कौन
तुम कौन
इस अधूरे रहे प्रेम का
पूरा जीवन
जिसमें जिए थे हम
एक दूजे के लिए
और
तुम्हारे अनुसार
हम कुछ भी नहीं
एक दूजे के
जानते हुए भी
हो जाएं अब से
अनजान एक दूजे से
यह असंभव
कैसे होगा संभव
तुम्हें जानती भी नहीं कि
जिस दिन से गई हो तुम
सो नहीं पाया ठीक से
चाय भी नहीं बनती अच्छे से
रोटीयों के साथ साथ
जल जाती है अंगुलियां
बंद ही नहीं होती हिचकियां
चिडचिडा हो गया है घर
आ बसे हैं
जाने कितने डर
आंखे लगी रहती है दरवाज़े पर
हाथ में थामें हाजिरी रजिस्टर
क्या तुम्हें!
जरा भी तरस नहीं आता
अपनी अनुपस्थिति पर?

26 October, 2010

हम कितने बेचारे

कभी सोचते थे
घर बैठे बैठे
चलो बाज़ार हो आएं
थोडा घूम आएं
कैसे बदल गया अचानक
जीवन का मिज़ाज
घर ही में आ घुसा है
शहर, देश ही नहीं,
पूरे विश्व का बाज़ार आज
खो गई है भीड में
सारी निजता
घर घर में घर कर रही है
मानसिक वैचारिक दरिद्रता
मरने, झरने लगी है
मनुता, अस्मिता
उफ़! यह रिक्तता
कैसी विवशता
हर घर बाज़ार
हर शख्स औज़ार
बचपन से पचपन
सब अभिनेता
क्रेता विक्रेता
इश्तिहार
जीत हार
इतने अनार
सब बीमार
सब कुछ स्वीकार
कहां है प्रतिकार
हमारे हाथ, साथ
सिर्फ़
प्राणहीन नारे हैं
हम
कितने बेचारे, बेसहारे हैं

22 October, 2010

राह कभी नहीं भूलती

राह कभी नहीं भूलती
उन कदमों को
जो बनाते हैं उसे राह
हर राह के पास है
एक इतिहास कदमों का
कदम जो चलते हैं
कदम जो राह बनाते हैं
अब कहां रहे कदम
राह बनाने वाले
रह गए सिर्फ़
लीक पीटनेवाले
हाथों में झण्डे वाले
वे कदम चाहते ही नहीं
अपनी कोई राह बनाना
खुद को आज़माना
बस! चले जा रहे हैं
किसी भी राह पर
क्यूं? पता नहीं
कहां? पता नहीं

18 October, 2010

दौड जरुरी है

मेरे पास नहीं है अवसर कि
इंतज़ार करुं अवसर का
फ़ितरत ही नहीं कि
किसी को औज़ार बनाऊं कि
बनूं किसी का औज़ार
जानता हूं, बहुत कठिन है
किसी से भी निभाना
कोई चाहता ही नहीं
किसी के कुछ काम आना
बहानों का ज़माना है
सबके पास है
कोई न कोई बहाना
अंगुली करने से फ़ुरसत मिले तो
किसी की अंगुली थामें
पता नहीं किन हाथों में हैं
हम सब की लगामें
आह!
कितनी कठिन है राह
पढ लिए सफ़लताओं के साधन
बदल गए
जीवनमूल्य सरोकार, संसाधन
आजमा लिए बाबाओं के सारे नुस्खे
भूखे आज भी है भूखे
क्यूं रुकें, किसके लिए रुकें
क्यों चूकें, किसके लिए चूकें
आओ जागें! हम भी भागें!
भागना मजबूरी हैं
काल से ताल के लिए
होड जरुरी है
दौड जरुरी है

14 October, 2010

कुछ आहटें

कुछ आहटें
कितनी अधिक परिचित होती है
आईने सी
कभी भी कहीं भी
आ धमकती है
सबके सामने
सबके बीच
बेआवाज़
लेकिन
कितना कोलाहल भर देती है
किसी को पता भी नहीं चलता
हम सबके साथ
सबके बीच होते हुए भी
किसी के साथ
किसी के बीच नहीं है
अपनी ही किसी
आहट के बीच,
कितनी आहत के साथ हैं

10 October, 2010

शैन: शैन:

नया
पहना
मैला किया
धोया, सुखोया
फ़िर पहन लिया
फ़ट गया तो
फ़िर नया,
कितने रंग,
कितने ढंग
कितने दिन
किसके संग
फ़िर गया
फ़िर नया
वही प्रक्रिया
पुन: पुन:
यूंही
झरता जाता है
शैन: शैन:
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