खारापन
जल
जब तक है
कुआं, बावड़ी, ताल-तलैया,
नदी, झरना
होता है-
मीठा, मृदुल, शीतल, निर्मल,
प्यास बुझानेवाला
समंदर होने पर ही
उगता, व्यापता है
खारापन उसमें
*****
ओर-और
उस ओर कुछ नहीं है
सिवा उस ओर के
इस ओर भी कुछ नहीं
सिवा इस ओर के
एक और,
ओर है
जो दोनों ही ओर है
इस ओर भी,
उस ओर भी...
बहुत से ओर
हैं उस ओर
एक भी ओर नहीं
इस ओर
मैं किस ओर
अपने ओर को देखूं!
औरों को देखते-देखते
और ही हो गया हूं मैं
सच कहूं!
इन औरों के जंगल में
औरों के साथ
कुछ और ही हो गया हूं मैं!
*****
कवि है कि नहीं
वे कवि नाम देख कर
करते हैं तय
कविता पढी जाए कि नहीं
मैं!
कविता पढकर तय करता हूं
कवि-कविता है कि नहीं
*****
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24 March, 2012
02 March, 2012
स्त्री: दो कविताएं
देह तो मात्र स्थायी है
इतने बिम्ब
प्रतीक गढे तुमने
जाने क्या-क्या
कसीदे पढे तुमने
पर पढ न पाए
एक बार भी मन
लिख ही न पाए कभी मन
केवल देह तो नहीं थी मैं!
देह तो मात्र स्थायी है
उस गीत के अंतरे की
जिसे सुना तुमने देह से
और केवल स्थायी
नहीं हो सकता
एक मुक्कमल गीत
बिना अंतरे के
सुनो!!
स्थायी के साथ
अंतरा भी सुनो!
पूरा गीत सुनो!!
केवल...
केवल स्थायी नहीं!!
*****
यह नरक सा स्वर्ग कब चाहा था उसने
वह बोलती
पर किसी को सुनाई नहीं देता
वह रोती
किसी को दिखाई नहीं देता
उसकी हंसी
खतम हो गयी थी कुंवारेपन के साथ ही
कुछ भी तो नहीं था ऎसा
जिसे कह सके अपना
घर:एक सपना
जो कागज़ों में था उसके नाम
जिसमें सब थे सिवा उसके
जो सबका था
सिवा उसके
सुबह से शाम
सबके लिए खटते-खटते
सबके लिए लड़ते-लड़ते
फ़ुर्सत ही कब दी किसी ने
अपने लिए कुछ करने की,
लड़ने की
हमेशा ही रही
पीहर में बहन-बेटी
ससुराल में पत्नि-बहू
किसी ने भी नहीं महसूसा
उसकी शिराओं में बहता लहू
यह नरक सा स्वर्ग
कब चाहा था उसने
फ़ूलों के बीज़ दिखाकर
बाहर-भीतर
ये कैक्टस बोए किसने?
*****
इतने बिम्ब
प्रतीक गढे तुमने
जाने क्या-क्या
कसीदे पढे तुमने
पर पढ न पाए
एक बार भी मन
लिख ही न पाए कभी मन
केवल देह तो नहीं थी मैं!
देह तो मात्र स्थायी है
उस गीत के अंतरे की
जिसे सुना तुमने देह से
और केवल स्थायी
नहीं हो सकता
एक मुक्कमल गीत
बिना अंतरे के
सुनो!!
स्थायी के साथ
अंतरा भी सुनो!
पूरा गीत सुनो!!
केवल...
केवल स्थायी नहीं!!
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यह नरक सा स्वर्ग कब चाहा था उसने
वह बोलती
पर किसी को सुनाई नहीं देता
वह रोती
किसी को दिखाई नहीं देता
उसकी हंसी
खतम हो गयी थी कुंवारेपन के साथ ही
कुछ भी तो नहीं था ऎसा
जिसे कह सके अपना
घर:एक सपना
जो कागज़ों में था उसके नाम
जिसमें सब थे सिवा उसके
जो सबका था
सिवा उसके
सुबह से शाम
सबके लिए खटते-खटते
सबके लिए लड़ते-लड़ते
फ़ुर्सत ही कब दी किसी ने
अपने लिए कुछ करने की,
लड़ने की
हमेशा ही रही
पीहर में बहन-बेटी
ससुराल में पत्नि-बहू
किसी ने भी नहीं महसूसा
उसकी शिराओं में बहता लहू
यह नरक सा स्वर्ग
कब चाहा था उसने
फ़ूलों के बीज़ दिखाकर
बाहर-भीतर
ये कैक्टस बोए किसने?
*****
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