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25 September, 2012

दो कविताएं






मैं जो हूं

मैं
नदी नहीं
रास्ता हूं
जिससे होकर बहती है नदी

मैं
सागर नहीं
तल हूं
जिस पर टिक
लहराता, इतराता है सागर

मैं जो हूं
वह मैं हूं
जो मैं नहीं
होना भी नहीं चाहता वह!
*****

चाह

नहीं चाहता
सपने देखना, दिखाना
भरमना, भरमाना
कोई बहुत बड़ी चाह नहीं है ये
पर कभी पूरी ही नहीं होती
*****

14 April, 2012

दो कविताएं: नवनीत पाण्डे

जो कहीं नहीं है

ये ककहरे
शब्द
वाक्य
भाषा
पूरी किताब
कुछ भी तो नहीं मेरा
ये संज्ञा
सर्वनाम, विशेषण,
रिश्ते-नाते
भावनाएं-कामनाएं
जीवन-प्रपंचों का
पूरा व्याकरण
यहीं से ही तो मिला
इन सबसे इतर
जो भी है
मेरे भीतर-बाहर
मैं हूं
जो कहीं नहीं है
*****

मेरी आग

वे लगे हैं
हर तरफ़ से
हर तरह से
करने को राख
मेरी आग को
करता रहता हूं जतन
उसे ज्वाला बनाने का
यह जानते हुए कि
बहुत खिलाफ़ है मेरे
हवाओं के रुख
फ़िर भी हूं प्रतिबध्द
देती रहती है
भरोसा मुझे
मेरी आग
*****

24 March, 2012

तीन कविताएं

खारापन

जल
जब तक है
कुआं, बावड़ी, ताल-तलैया,
नदी, झरना
होता है-
मीठा, मृदुल, शीतल, निर्मल,
प्यास बुझानेवाला
समंदर होने पर ही
उगता, व्यापता है
खारापन उसमें
*****


ओर-और

उस ओर कुछ नहीं है
सिवा उस ओर के
इस ओर भी कुछ नहीं
सिवा इस ओर के
एक और,
ओर है
जो दोनों ही ओर है
इस ओर भी,
उस ओर भी...

बहुत से ओर
हैं उस ओर
एक भी ओर नहीं
इस ओर
मैं किस ओर
अपने ओर को देखूं!

औरों को देखते-देखते
और ही हो गया हूं मैं
सच कहूं!
इन औरों के जंगल में
औरों के साथ
कुछ और ही हो गया हूं मैं!
*****

कवि है कि नहीं

वे कवि नाम देख कर
करते हैं तय
कविता पढी जाए कि नहीं
मैं!
कविता पढकर तय करता हूं
कवि-कविता है कि नहीं
*****

02 March, 2012

स्त्री: दो कविताएं

देह तो मात्र स्थायी है

इतने बिम्ब
प्रतीक गढे तुमने
जाने क्या-क्या
कसीदे पढे तुमने
पर पढ न पाए
एक बार भी मन
लिख ही न पाए कभी मन
केवल देह तो नहीं थी मैं!
देह तो मात्र स्थायी है
उस गीत के अंतरे की
जिसे सुना तुमने देह से
और केवल स्थायी
नहीं हो सकता
एक मुक्कमल गीत
बिना अंतरे के
सुनो!!
स्थायी के साथ
अंतरा भी सुनो!
पूरा गीत सुनो!!
केवल...
केवल स्थायी नहीं!!
*****

यह नरक सा स्वर्ग कब चाहा था उसने

वह बोलती
पर किसी को सुनाई नहीं देता
वह रोती
किसी को दिखाई नहीं देता
उसकी हंसी
खतम हो गयी थी कुंवारेपन के साथ ही
कुछ भी तो नहीं था ऎसा
जिसे कह सके अपना
घर:एक सपना
जो कागज़ों में था उसके नाम
जिसमें सब थे सिवा उसके
जो सबका था
सिवा उसके
सुबह से शाम
सबके लिए खटते-खटते
सबके लिए लड़ते-लड़ते
फ़ुर्सत ही कब दी किसी ने
अपने लिए कुछ करने की,
लड़ने की
हमेशा ही रही
पीहर में बहन-बेटी
ससुराल में पत्नि-बहू
किसी ने भी नहीं महसूसा
उसकी शिराओं में बहता लहू
यह नरक सा स्वर्ग
कब चाहा था उसने
फ़ूलों के बीज़ दिखाकर
बाहर-भीतर
ये कैक्टस बोए किसने?
*****

18 February, 2012

आमआदमी का गीत

(स्व.जनकवि-गीतकार मोहम्मद सदीक को समर्पित)

जानता है सब मगर, बोलता नहीं
आम-आदमी जुबान खोलता नहीं

है उसे मालूम, क्या हो रहा है क्यूं
उसका भाग, ये अंधेरे ढो रहा है क्यूं
उसका घर, सुख क्यूं टटोलता नहीं

दीन-हीन बेटे उसके, मरे जेल में
कौन है असल खिलाड़ी, मौत-खेल में
जाने हर कोई, होंठ खोलता नहीं

छोड़े थे कुत्ते चोरों की, सूंघ के लिए
कुत्ते सारे हाकिमों के, घर को हो लिए
पालतू हरेक कुत्ता, भौंकता नहीं

जानता है सच वह, हड़ताल-बंद का
वही भोगता है दंड, इस अफ़ंड का
भूख-मुफ़लिसी को कोई, मौलता नहीं

बोले तो अंजाम क्या, जानता है वो
अपनी क्या औकात, पहचानता है वो
घाव सरेआम अपने, खोलता नहीं
*****

05 February, 2012

न देखे कोई नामवर...

बरसों पहले लिखा गीत जैसा कुछ आज हाथ आ गया। उन लेखन-प्रतिभाओं को समर्पित जो हमारी आलोचना-दृष्टि और आलोचकों की वजह से वह स्थान नहीं पा सकी जिसकी वे हकदार थीं...

गीत जैसा कुछ

न देखे कोई नामवर...


न देखे कोई नामवर
तू तो अपना काम कर
शब्द-शब्द कलम से
काल की टंकार भर

हर शब्द जो लिखा
काल की भट्टी पकाए
कालांतर रहे वही
होती जहां संभावनाएं
बीज फ़ूटे, फ़ूले-फ़ले
ज़मीं ऎसी तैयार कर...

इतिहासों के इतिहास में
कितने ही नाम है अनाम
कितनों ही के किए काम
दर्ज हुए औरों के नाम
हो जा खुद खबरदार
सब को खबरदार कर...

न हारे कोई, जीत ऎसा
सबको तारे, सीख ऎसा
लोग पढें सब लिख ऎसा
वेद टिके ज्यों टिक ऎसा
कोई किसी का हक न मारे
जन-जन में हुंकार भर...

16 January, 2012

इस जीवन की दौड़ अज़ब है

गीत

इस जीवन की दौड़ अज़ब है
पहुंचे कि न पहुंचे कहीं बस!
अपनी दौड़ें, दौड़े सब हैं

किसी से आगे किसी के पीछे
किसी के ऊपर किसी के नीचे
बाहर-भीतर भागम-भाग है
देखो जिधर एक दौड़-राग है
पल भर को विश्राम नहीं कहीं
काल से सांस की होड़ अज़ब है

इस जीवन की दौड़ अज़ब है

चलते-चलते ये पगडंडी
ना जाने किस पल खो जाए
जाना कहां, क्या है पाना
खोजनवारे खोज न पाए
मन के भीतर इन बीह्ड़ों के
सोच में आते मोड़ अज़ब हैं

इस जीवन की दौड़ अज़ब है


इतना जोड़ा, इतना घटाया
जांच, परख, हर सूत्र लगाया
सब से पूछा, सब ने बताया
फ़िर भी गणित ये, समझ न आया
कोई तो बूझे, क्या है उत्तर
जोड़-तोड़ में, लागे सब है

इस जीवन की, दौड़ अज़ब है
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