पी चुके हैं कितनी ही फ़िर भी
प्यास अभी बाकी है
अमावस्या और पूर्णिमा के बीच
विश्वास अभी बाकी है
झूठी वर्जनाओं से
सन्यास अभी बाकी है
अपनी संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण की
तलाश अभी बाकी है
कुछ रिश्तों में
अहसास अभी बाकी है
कहीं न कहीं कुछ
खास अभी बाकी है
बार बार मारे जाने पर भी
जीने की तलब है
इसीलिए तो ज़िंदगी में
सांस अभी बाकी है
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15 December, 2010
13 December, 2010
जब-तब
जो कभी भाव नहीं पूछते
चुका देते हैं मुंहमांगे दाम
वे लोग!
नहीं होते आम
उन्हें पसंद और चीज़ों से मतलब हैं
भले ही कुछ भी हों दाम
वे कुछ भी
कभी भी खरीद सकते हैं
खरीदते ही हैं
जब-तब
हार ही जाते हैं
सारे कानून, अधिकार
प्रतिकार
जब-तब
चुका देते हैं मुंहमांगे दाम
वे लोग!
नहीं होते आम
उन्हें पसंद और चीज़ों से मतलब हैं
भले ही कुछ भी हों दाम
वे कुछ भी
कभी भी खरीद सकते हैं
खरीदते ही हैं
जब-तब
हार ही जाते हैं
सारे कानून, अधिकार
प्रतिकार
जब-तब
11 December, 2010
लगेगी पार कैसे भला!
क्यूं रहते हैं बंद हमेशा
कुछ घरों के
दरवाजे और खिडकियां
कैसे कटती होंगी
अंधेरे, बंद मकानों में
सपनों से लकदक जिंदगियां
रोने कैसे देंगे वो खुलकर
औरों को
दबा लेते हैं जो अपनी ही सिसकिंया
मल्लाह ही लगेंगे
छेदने जिन्हें
लगेगी पार कैसे भला! वे किश्तियां
कुछ घरों के
दरवाजे और खिडकियां
कैसे कटती होंगी
अंधेरे, बंद मकानों में
सपनों से लकदक जिंदगियां
रोने कैसे देंगे वो खुलकर
औरों को
दबा लेते हैं जो अपनी ही सिसकिंया
मल्लाह ही लगेंगे
छेदने जिन्हें
लगेगी पार कैसे भला! वे किश्तियां
07 December, 2010
स्त्री! स्त्री होना चाहती है
स्त्री!
स्त्री होना चाहती है
हर बेहिसाबी का
हिसाब चाहती है
नहीं चाहती रोना-धोना,
स्वयं को खोना
रातों के अंधेरों में
चुपचाप, निर्विरोध
हमबिस्तर होना
रिश्तों को
सिर्फ़ नाम के लिए ढोना
स्त्री गूंगे होठों पर
जुबान, गान चाहती है
आंखों में अश्रु
जीवन की थकान नहीं
एक चिरंजीव
मुस्कान चाहती है
स्त्री कभी नहीं चाहती
पुरुष होना
अपना अस्तित्त्व खोना
स्त्री!
स्त्री ही रहना चाहती है
बस! अपने को कहना चाहती है
*******
स्त्री होना चाहती है
हर बेहिसाबी का
हिसाब चाहती है
नहीं चाहती रोना-धोना,
स्वयं को खोना
रातों के अंधेरों में
चुपचाप, निर्विरोध
हमबिस्तर होना
रिश्तों को
सिर्फ़ नाम के लिए ढोना
स्त्री गूंगे होठों पर
जुबान, गान चाहती है
आंखों में अश्रु
जीवन की थकान नहीं
एक चिरंजीव
मुस्कान चाहती है
स्त्री कभी नहीं चाहती
पुरुष होना
अपना अस्तित्त्व खोना
स्त्री!
स्त्री ही रहना चाहती है
बस! अपने को कहना चाहती है
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05 December, 2010
क्या है उत्तर इस अनुत्तरित प्रश्न का
आज फ़िर फ़ेंक गया
कि फ़ेंक गयी
अलसुबह कि
आधी रात को
पता नहीं, कब?
एक नवजात
शहर के सुनसान इलाके में
मरा कि अधमरा
करता संघर्ष मृत्यु से
आज फ़िर हुयी भीड
गढी चटकारे ले ले कर
तरह तरह की कहानियां, बातें
कोसा निर्दयी बिनब्याही मां को
(सारी फ़ब्तियां, गालियां, फ़तवे)
सिर्फ़ उस मां को
किसी ने कुछ भी न कहा
उस
मक्कार धोखेबाज़ कसूरवार पिता को
क्या हो गया है
इस आदम जात को?
आखिर कब तक और क्यूं
नवजातों को यूं फ़ेंका, मारा जाएगा
उसे पाप पुकारा जाएगा
क्या सचमुच ही यह पाप है?
यह कैसा इंसाफ़ है?
एक मनचाहे सबंध की
क्या होगी हमेशा
यही परिणिति
एक निरपराध, असहाय
मासूम नवजात की
ऎसी गति, दुर्गति?
क्या कभी बदल पाएंगे हम
अपनी यह मति-वृति?
क्या है उत्तर
इस अनुत्तरित प्रश्न का
आखिर कब तक
भुगतेगा परिणाम
एक नवजात
एक क्षणिक आवेग, एक व्यसन का?
*******
कि फ़ेंक गयी
अलसुबह कि
आधी रात को
पता नहीं, कब?
एक नवजात
शहर के सुनसान इलाके में
मरा कि अधमरा
करता संघर्ष मृत्यु से
आज फ़िर हुयी भीड
गढी चटकारे ले ले कर
तरह तरह की कहानियां, बातें
कोसा निर्दयी बिनब्याही मां को
(सारी फ़ब्तियां, गालियां, फ़तवे)
सिर्फ़ उस मां को
किसी ने कुछ भी न कहा
उस
मक्कार धोखेबाज़ कसूरवार पिता को
क्या हो गया है
इस आदम जात को?
आखिर कब तक और क्यूं
नवजातों को यूं फ़ेंका, मारा जाएगा
उसे पाप पुकारा जाएगा
क्या सचमुच ही यह पाप है?
यह कैसा इंसाफ़ है?
एक मनचाहे सबंध की
क्या होगी हमेशा
यही परिणिति
एक निरपराध, असहाय
मासूम नवजात की
ऎसी गति, दुर्गति?
क्या कभी बदल पाएंगे हम
अपनी यह मति-वृति?
क्या है उत्तर
इस अनुत्तरित प्रश्न का
आखिर कब तक
भुगतेगा परिणाम
एक नवजात
एक क्षणिक आवेग, एक व्यसन का?
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