इतना लिखा है
लिखता ही रहा हूं
पर जब भी चाहा
लिखना तुम्हें!
लिख नहीं पाता
एक भी शब्द
शब्दकोश का
टिक नहीं पाता
हर उपमा, प्रतीक, अलंकार
लघुत्तम
जान पड़ते हैं
तुम्हारे लिए
जाने क्या-क्या
कितनी बार
लिखा और मिटाया
शब्द-शब्द कसमसाया
फ़िर भी
सिरे नहीं चढ पाया
तुम में ढल न पाया
इबादत में कैसे आता
जब
इबारत में ही नहीं आया
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30 June, 2011
25 June, 2011
दो कविताएं
१
संवाद
अक्षर
जब
शब्द होता है
कोई न कोई
अर्थ होता है
शब्द
जब
कहा, सुना,
लिखा, पढा जाता है
कोई न कोई
संवाद राह बनाता है
संवाद
जब होठों पर आता है
मौन हकबका जाता है
२
तुम्हारा मौन
तुम!
और तुम्हारा मौन..
मैं!
और मेरा मैं..
दोनों के बीच
एक अर्थहीन अर्थ
मेरा..तुम्हारा
क्या
हदें
सचमुच
इतना अपरिचित
बना देती है?
संवाद
अक्षर
जब
शब्द होता है
कोई न कोई
अर्थ होता है
शब्द
जब
कहा, सुना,
लिखा, पढा जाता है
कोई न कोई
संवाद राह बनाता है
संवाद
जब होठों पर आता है
मौन हकबका जाता है
२
तुम्हारा मौन
तुम!
और तुम्हारा मौन..
मैं!
और मेरा मैं..
दोनों के बीच
एक अर्थहीन अर्थ
मेरा..तुम्हारा
क्या
हदें
सचमुच
इतना अपरिचित
बना देती है?
10 June, 2011
कंगूरे कह रहे हैं
कहां-कहां
कितनी-कितनी
ज़िंदा है कविता
कहां-कहां
गौरान्वित
कहां-कहां
शर्मिंदा है कविता
जहां-तहां देखो...
कवियों ही कवियों का है
बोलबाला
सब होचपौच
गड़बड़-झाला
क्या है?
कहां है?
कविता का आज
आज की कविता
क्यूं चुप, गूंगी है
कलम की आवाज़
संभावनाओं में जीते हुए
भावनाओं में बह रहे हैं
जड़ें खोखला रही है
कंगूरे कह रहे हैं
कितनी-कितनी
ज़िंदा है कविता
कहां-कहां
गौरान्वित
कहां-कहां
शर्मिंदा है कविता
जहां-तहां देखो...
कवियों ही कवियों का है
बोलबाला
सब होचपौच
गड़बड़-झाला
क्या है?
कहां है?
कविता का आज
आज की कविता
क्यूं चुप, गूंगी है
कलम की आवाज़
संभावनाओं में जीते हुए
भावनाओं में बह रहे हैं
जड़ें खोखला रही है
कंगूरे कह रहे हैं
03 June, 2011
कइयों को सुखी कर जाऊंगा
मार दिया जाऊंगा
कि मर जाऊंगा
इतना तय है
कइयों को सुखी कर जाऊंगा
खतम हो जाएंगे
मेरे होने के
कई दुख मेरे साथ ही
खुलकर हंसेंगे कई चेहरे
बोलेंगे खुलकर
सोचेंगे खुलकर
कितनों को दे जाऊंगा
एक नया जीवन
मैं मरकर
नहीं कोई आरोप मेरा
किसी पर
जानता, मानता हूं
खड़ा रहा हूं जीवन भर
सब के कटघरे में
आरोपित होकर
पढी हैं सबकी भावनाएं
मेरे लिए मनोकामनाएं
व्यर्थ है कोई भ्रम पालूं
अब कहां रहा माद्दा
कि खुद को संभालूं
सारी दुश्वारियों, बीमारियों के बीज
मैने खुद ही तो बोए हैं
अच्छी तरह जानता हूं
मेरे जन्म की खुशी में
थाली बजानेवाले
मेरे मर जाने के दु:ख में
कितना रोए हैं
कि मर जाऊंगा
इतना तय है
कइयों को सुखी कर जाऊंगा
खतम हो जाएंगे
मेरे होने के
कई दुख मेरे साथ ही
खुलकर हंसेंगे कई चेहरे
बोलेंगे खुलकर
सोचेंगे खुलकर
कितनों को दे जाऊंगा
एक नया जीवन
मैं मरकर
नहीं कोई आरोप मेरा
किसी पर
जानता, मानता हूं
खड़ा रहा हूं जीवन भर
सब के कटघरे में
आरोपित होकर
पढी हैं सबकी भावनाएं
मेरे लिए मनोकामनाएं
व्यर्थ है कोई भ्रम पालूं
अब कहां रहा माद्दा
कि खुद को संभालूं
सारी दुश्वारियों, बीमारियों के बीज
मैने खुद ही तो बोए हैं
अच्छी तरह जानता हूं
मेरे जन्म की खुशी में
थाली बजानेवाले
मेरे मर जाने के दु:ख में
कितना रोए हैं
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