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31 March, 2011

इस नपुंसक सन्नाटे में

मुझे पता था
नहीं मिलेगा
मनचाहा
होगा अनचाहा
उस ओर होंगे सब के सब
इस ओर अकेला मैं
मुझे सुनना ही होगा सबको
पर
कभी नहीं दिया जाएगा हक
मुझे अपनी बात कहने का
पता था मुझे
ताज़िंदगी लड़ना होगा
लड़ते लड़ते मरना होगा
इस नपुंसक सन्नाटे में
खुद को ही सदा भरना होगा

28 March, 2011

लड़की / १५ कविताएं

लड़की



लड़की
एक अनचाही मन्नत
अनचाही आगत
यानी कि आफ़त



लड़की को
जिस दिन अहसास दिलाया गया
वह लड़की है
वह अकेली हो गई



लड़की
नहीं चाहती फ़िर लड़की होना
जब मां बनने वाली होती है
सपनें बेटे के ही देखती है



लड़की
लड़ जाना चाहती है हरेक से
अपने लड़कीपन को
बचाने के लिए



लड़की को मालूम है
अपनी नियति
फ़िर भी नहीं रोती
जागती, जगाती, गहरे नहीं सोती



लड़की कहना चाहती है
लड़की से
तुम लड़की हो
पर लड़की को
दया मत बनाओ कभी किसी की



लड़की
पाना चाहती है भरोसा
लड़की का
देकर अपना भरोसा



लड़की
कभी नहीं चाहती
उसे विशिष्ट मिले
यह भी नहीं कि
निकृष्ट मिले



लड़की
मां होने पर भी
लड़की ही होती है
बस!
थोड़ा कम हंसती है

१०

लड़की चाहती है
किसी की होना
पर नहीं चाहती
किसी की होकर
अपने आप को खोना

११

सब चाहते हैं
लड़की में
लड़कीपन
सुंदर दुल्हन
अच्छी मां
कुशल गृहिणी
नहीं चाहते
जो चाहता है
लड़की का मन..

१२

लड़की
जानती है
अपनी दुश्मन वह खुद है
इसीलिए तो
हर लड़की का
अपने ही खिलाफ़ खड़े होना
एक सतत युद्द है

१३

लड़की
जब करने लगती है बात
हक की
आंखों में चुभने लगती है
सब की

१४

लड़की को मना है
आजादी से घूमना फ़िरना
अपने ही घर की छत पर
टहलना
खिड़की के पास बैठना
लड़की की सबसे बड़ी कमजोरी है
लड़की होना

१५

लड़की
खंजर घोप देना चाहती है
हर उस नज़र में
जो उसे लड़की नहीं
माल
चीज
समझती करती है
लड़की प्रतिकार ही नहीं
प्रहार भी करती है

27 March, 2011

तितलियां ढूंढते ढूंढते

बहुत दिनों से
चाहता हूं देखना-
एक तितली
यह भी कोई चाह है!
सोचते होंगे आप..
तितली भी शायद
यही सोचती होगी
पर इन दिनों
सचमुच
यह एक इकलौती चाह
बनी हुयी है मेरी
कि किसी भी तरह, कहीं भी
दिख जाए एक तितली
न गमलों में लगे फ़ूलों पर है
न शहर के पार्कों में
जहां अब पार्क के नाम पर
महज़ कैक्ट्स, या झाड़ रह गए हैं
विकास के ये प्रतिमान
कितने नए हैं
डर है....
सारी तितलियां मर तो नहीं गयी
फ़ूलों को ढूंढते ढूंढते?
और शायद
एक दिन
मैं भी यूं ही पूरा हो जाऊंगा
तितलियां ढूंढते ढूंढते

23 March, 2011

क्या करे कविता..

मौन ने धार लिया है
पूर्णत: मौन
बोलता ही नहीं कुछ
फ़ेंक रहा हूं कब से
शब्द और शब्द
पर होती ही नहीं कहीं
कोई हलचल
इस चुप्पी के तालाब में
सब कुछ नि:शब्द
निस्तब्ध
सिर्फ़ सन्नाटा
करता सबको
सन्नाटे में
भरती ही नहीं रिक्तता
क्या करे कविता....

21 March, 2011

कविता हो जाती है चिड़िया

चिड़िया!!
बहुत ही छोटा पक्षी
किसी काम का है, नहीं सुना
चिड़िया को जब भी देखा
एक छोटी सी
फ़ुर्र फ़ुर्र उपस्थिति के साथ
चिड़ियाते हुए ही देखा
चिड़िया कभी नहीं सुहाती कमरे में
तुरंत उड़ा दी जाती
लेकिन
आ गयी कविता में
और भी बहुत से कवियों की
कविताओं में भी देखा है चिड़िया को
क्या है ऎसा चिड़िया में?
देखा है चिड़िया को
कोशिश की भी जानने की चिड़िया को
पर
सिर्फ़ चीं चीं के सिवा...
कुछ नहीं जान पाया
फ़िर भी
ललचाती है चिड़िया
बार बार आती है चिड़िया
उड़ा देने के बावजूद
कविता हो जाती है चिड़िया

14 March, 2011

गज़ल के बहाने

जो दिल के हैं नहीं दिल से, उन से दिल लगाना क्या
हकीकत तो, हकीकत है, हकीकत को, छुपाना क्या


कभी इस डाल आ बैठे, कभी उस डाल जा बैठे
ये उड़ते हुए कव्वै, इनका आशियाना क्या


ज़ुबां पे क्या, है दिल में क्या, कोई जान न पाए
गुरुघंटाल ये यारों, इन से सर खपाना क्या


बहुत मुश्किल, नामुमकिन, कि ये किसी के हों
यही फ़ितरत रही इनकी, इनको आजमाना क्या

10 March, 2011

मैं अकेला नहीं कहीं

न करे कोई याद
न सही
न करे कोई बात
न सही
न रहे कोई साथ
न सही
न हो सर पर कोई हाथ
न सही
नहीं छीन सकता कोई मुझ से
मेरी लेखनी
जब तक ये मेरे साथ हैं,
मैं अकेला नहीं कहीं

09 March, 2011

तीन कविताएं

एक और आकाश

वह देखता है
अपनी आंखों से
आकाश
मैं देखता हूं
उसकी आंखों में
उसी आकाश में उड़ती
एक नन्हीं चिड़िया भी
अपनी आंखों में एक और आकाश लिए


मेरा ईश्वर!

मेरा ईश्वर!
शब्द हैं...
जो रचते हैं मुझे
लिखते हैं मुझे..
मेरा आवरण, अंत:करण
मेरा संर्घष, समर्पण
जिज्ञासाओं के दर्पण
करते स्तब्ध हर बार..
शब्द बार बार..


कविताओं के बीज बो रहे हैं

होना चाहता था कहानी
पर कविता हो गया
जानते हुए कि
कविता में अब
नहीं दिलचस्पी लोगों की
लोग कहानी हो रहे हैं
अकहानियों में खो रहे हैं
फ़िर भी न जाने किस धुन में
मैं और मेरे जैसे कई जिद्दी
कविताओं के बीज बो रहे हैं

07 March, 2011

कुछ हरा, कुछ भरा

पेड़ बूढा गया है
अब नहीं देता फ़ल
हरियाता भी नहीं
पहले की तरह
न ही कोई
पेड़ की छांह आता है
पेड़
अब
सिर्फ़ पेड़ कहलाता है
पेड़ रोता है
पर
जब भी कोई
पेड़ के पास से
होकर जाता है
कोई नहीं जानता
पेड़ फ़िर से
कुछ हरा
कुछ भरा
हो जाता है

05 March, 2011

मेरी खुशी मेरी उदासी

किन शब्दों में लिखूं
शब्द दिखते हैं
खोते अपनी इयत्ता
शब्दार्थ छोड़
होते जा रहे हैं
अनुलोम-विलोम
तत्सम, पर्यायवाची
अव्यक्त ही रह जाती है
हर बार
मेरी खुशी
मेरी उदासी

03 March, 2011

दिन

दिन
कई दिनों से उदास है
सुबह से शाम तक
दिन
दिनभर अकेला
किसी से नहीं मिलता
किसी से नहीं बोलता
चुपचाप...
उगता,
अपनी ही रौ में
चलता, जलता
चुपचाप...
ढलता
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