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26 December, 2011

हम दो, हमारे दो

रिश्ते
सिर्फ़
हम दो
हमारे दो

सम्बन्ध
सिर्फ़ उन से
जो काम के हो

समाज
सिर्फ़ वह
जहां अपना कोई न हो

उत्सव
सिर्फ़ वहां
जहां
औपचारिक-अनौपचारिक
आयोजनों के
औपचारिक निमंत्रणों से
भीड़ इकठ्ठा हो

क्या पढा-लिखा
क्या अनपढ
आदमी रहा
आदमी से कट

सारी आत्मीयता, सगापन
रोशनी की जगमगाहटों, शाही टैंटों में
शाही दावत का स्वाद ले
अपने-अपने अंधेरों में
दुबक गया है

आदमी
सिर्फ़
एक शुभकामनाओं सहित
शगुन का लिफ़ाफ़ा
हो कर रह गया है...
*****

17 December, 2011

हो जाऊं खुद ही कलम

सम्भालता रहता हूं जड़ें
पेड़ों को, हरा-हरा रखने के लिए

हो जाना चाहता हूं चाक
अनगढ मिट्टी को, गढने के लिए

सपनें हो जाए गर हकीकत
मौका ही न दूं, आंसुओं को बहने के लिए

चाहता हूं हो जाऊं खुद ही कलम
ज़िंदगी के सफ़ों की, कविता लिखने के लिए

06 December, 2011

दो कविताएं : नवनीत पाण्डे

हो गया कवि

उस अलौकिक ने
रचा मुझे

मैंने-
देखते
समझते हुए
महसूसते हुए
बाहर को
भीतर अपने

दी गयी भाषा में
रचा फ़िर से तुम्हें
अपनी लेखनी से
बाहर
और
हो गया कवि
*****


कविता में.....

मैंने देखा था तुम्हें
पहले पहल
कविता में
फ़िर कविता में
फ़िर फ़िर कविता में
पर देखना बाकी है अभी
कविता है क्या?
कविता में.....
*****

27 November, 2011

यह प्रश्न नहीं और कहां खड़ा रहूं: दो कविताएं

यह प्रश्न नहीं

अब चिठ्ठियां नहीं के लगभग आती है
और शायद कुछ दिनों बाद
जो कभी-कभार आती हैं
वे भी न आए
जैसे
आजकल बच्चों की किताबों से
गायब हो गए हैं चिठ्ठियोंवाले पाठ
परीक्षाओं के प्रश्न-पत्रों में
नहीं पूछे जाते पत्र-लेखन वाले प्रश्न
बच्चों को मालूम ही नहीं
चिठ्ठी क्या होती है?

सारे जीवन-व्यवहार
सिमट कर रह गए हैं
एक नम्बरी यंत्र में
और धीरे-धीरे
सब कुछ बदलता जा रहा हैं
नम्बरों में
नम्बरों से ही होने लगी है अब
पहचान हमारी

एक के बाद कोई नहीं के चक्कर में
मारे जा रहे हैं बेमौत
प्यारे-घरेलू रिश्ते भी

क्या..सचमुच ही
हो जाएंगे दफ़न
इतिहास में?
ताऊ-ताई, चाचा-चाची,
भैया-भाभी,मौसा-मौसी,
बुआ-फ़ूफ़ा,साला-सलहज,
जीजा-साली आदि शब्द और रिश्ते

कितने और किसके
कंधे रहेंगे, बचेंगे
हमारी अंतिम यात्रा में
यात्रा होगी भी कि नहीं?
यह प्रश्न नहीं
कटु यथार्थ है
हमारा ही नहीं
आनेवाली पीढियों का भी
*****


कहां खड़ा रहूं


कहां खड़ा रहूं
जहां भी दिखती है ज़मीन
खड़े रहने माफ़िक
करता हूं जतन
कदमों को टिकाने की

पर जानते ही
खोखलापन-हकीकतें
ज़मीन की
डगमगाने-कांपने लगते हैं
कदम
टूट जाते हैं
सारे स्वप्न
अपने पैरों पर खड़े होने के

सच!
अब सचमुच ही होगा कठिन
ज़मीन
अब नहीं रही
एक अदद आदमी के
खड़े रहने के लिए
एक अदद
ठोस ज़मीन...
*****

18 November, 2011

बुध्द - तीन कविताएं

बुध्द-१

बु्ध्द ने
कभी
किसी से नहीं कहा
बुध्द बनों
जिसने भी देखा बुध्द को
मिला बुध्द से
बुध्द होता गया....
*****

बुध्द-२

मैंने देखा है बुद्ध को
ठीक वैसे ही
जैसे-
देखा होगा यशोधरा ने
बारह बरसों बाद
एक भिक्षु अपने द्वार पर
कहा लोगों ने..
यह बुद्ध है!

देखकर बुध्द को
आंखों में सिमट आए होंगे
पूरे बारह बरस
अंधेरों की अगवानी करती
एक नवजात की किलकारी
घुप्प अंधेरे में

अंधकारमय भविष्य देकर
भागता.....
एक हृदयहीन पति-पिता
बारह बरस बाद
फिर क्यूं यहां?
पूछा होगा यशोधरा के मौन ने

क्यों?
कहां और किस हेतु?
किया, हुआ ऐसा?
वह क्या था जिसे पाने
भटके बारह बरस बीहड़ों में
मिला वहां?
यह कमण्डल....
यह वेश.....
यह विचार...

क्या नहीं मिल सकता था यहां?
था कौन व्यवधान
बताते तो सही
एक बार!
सिर्फ एक बार
इस अकिंचन को
आजमाते तो सही.....

अब क्यों?
क्या रह गया
जो आए
लेने-देने के लिए
यह भिक्षुवेश-भिक्षापात्र
किस काम के
राहुल के लिए....

यही एक मात्र मेरा
अवदान पुत्र राहुल के लिए
सर्वस्व कल्याण राहुल के लिए
तुम भी आओ!
अपना लो यह
केवल मात्र एक सत्य है यह
पाया मैंने जो
पा लो तुम भी वो!!
*****

बुध्द-३

मैंने देखा है बुद्ध को
ठीक वैसे ही
जैसे-
देखा होगा कलिंग ने
बताया होगा कलिंग ने
पूछा होगा कलिंग ने
जिसे देख
हो गए थे बुद्ध
बुद्ध!
तथागत!
मौन!
अनुत्तरित!

आज भी दिखते हैं मुझे
कई कलिंग
अपने आस-पास
पर नहीं दिखता
दूर-दूर तक कहीं
एक भी बुद्ध
होते हुए बुद्ध......!

11 November, 2011

नित नए ईश्वर

ईश्वर ने
कब घोषित किया
अपने आपको ईश्वर
अपने हितों को साधने के लिए
हम ही रचते, रचाते रहे
अपने-अपने ईश्वर!
अपनी दुर्बलताओं को
धार्मिक आडम्बर में छुपाने के लिए
रचा गया
एक महिमामण्डित भय है ईश्वर
अवतार नहीं
बहुधारी तलवार है ईश्वर!
गूढ जटिल व्यापार है ईश्वर!

मनुष्यता और मानवीय होने के
झूठे विज्ञापन और षडयंत्र
सारे ईश्वरीय मंत्र
हमेशा ही छीनते रहे हैं जो
आदमी से आदमी होने का हक
बहुत ही सम्मोहक
ये ईश्वरीय तंत्र

छीन लेते हैं
जीवन-धर्म, कर्म-मर्म
भर देते हैं
भीतर तक
अजाने-अनंत भरम
जन्मते-जन्माते
नित नए ईश्वर
मानते-मनवाते
नित नए ईश्वर

05 November, 2011

जानना चाहता हूं

सच!
किसने कहा था तुम्हें
सबसे पहले
कड़वा!
और क्यूं?
उसने कैसे चखा था तुम्हें?
कैसे जाना स्वाद तुम्हारा
कि तुम कड़वे ही हो
झूठ क्यूं हुआ सफ़ेद
क्यों नहीं मिला उसे कोई स्वाद
किसने दिया
उसे रंग
तुम्हें स्वाद
बताओ सच!
आखिर है क्या....
तुम्हारे सच का
सच!
और झूठ का
झूठ!
मैं भी बोलना चाहता हूं बहुत कुछ
पर बोलने से पहले
जानना चाहता हूं.....

27 October, 2011

काला टीका

मां को
कुछ नहीं बताता था
फ़िर भी
पता चल ही जाता था
आसानी से
मां को
मेरा हर झूठ
पकड़ लेती थी मां
मेरी हर चोरी
सब पता रहता था
मां को
मैं क्या कहता हूं
क्या करता हूं
क्या है मेरे मन में
कई बार
मां ने
मारा मु्झे
अपने ही तरीके से
सुधारा, संवारा मुझे
कभी-कभी अनायास
जब भी हाथ
माथे के बायीं ओर जाता है
मां का लगाया काला टीका
कोमल स्पर्श याद आता हैं
मैं कुछ भी नहीं कर पाया
मां के लिए
पर मां!
कितना कुछ कर गयी थी
मेरे लिए

19 October, 2011

तुम्हें देखते हुए

तुम्हें देखते हुए
मैंने देखा!
मैं अकेला नहीं था
तुम्हें देखनेवाला
देख रहा था रास्ता
चलते-चलते
देख रहा था वह पेड़
जिसने बुला लिया था
तल्ख धूप से बचाने के लिए तुम्हें
अपनी छांह तले
देख रहे थे परिंदे
जो उड़ते-उड़ते
बैठ गए उसी पेड़
तुम्हें देखने
पर तुम सबसे अनजान
अपने ही में खोयी
जागते में सोयी
पलकभर भी न देखा
देखते हुए रास्ते को
पेड़ को
परिंदों को
और मुझे भी
जो कभी भी
अकेला नहीं था
तुम्हें देखनेवाला

09 October, 2011

दो कविताएं

अंतहीन

जो देता है मुझे
क्या देता हूं मैं उसे
सिवाय कुछ
संभावनाओं के
जो देने ही से आरंभ होकर
देने पर ही
कब हुयी खतम
देना
और देते रहना
अंतहीन
जैसे
लेना
और लेते रहना
अंतहीन
*****

अपना यह घर!

तुम लिखते
बुनते जाल
रचते-रचाते
तिलिस्म शब्दों के
भरमाते
खुद को
सबको

मैं लिखता
अर्थ!
रचता
भीतर का बाहर
बाहर का भीतर
कुछ भी नहीं
सांस से इतर

तुम भटकते
सारा जहान
अनदेखा कर
अपना घर
ढहाते-बनाते
नित नए घर

पर मुझे तो
हर आंख में
दिखता
एक घर
जोहता बाट
एक घर की
जरा देखो तो सही
एक बार
अपना यह घर!
*****

01 October, 2011

स्री जो है

कहती नहीं
पालती है
भीतर-भीतर
सारे दुख
स्री जो है

भरती नहीं कभी भी
बस!
रीतती जाती है
सबको भरा रखने में
स्री जो है

पूछा ही नहीं किसी ने कभी
क्या है चाहें, इच्छाएं
हिस्से में सिर्फ़ रुदन, मौन
बांटती मुस्कराहटें
स्री जो है

24 September, 2011

अक्षर है प्रेम

अक्षर है
प्रेम
क्षरते हैं
प्रेम के आग्रह
प्रेम के आश्रय
आलंब-अवलंब
नहीं होती भाषा
कोई व्याकरण
पाठशाला
प्रेम की....
फ़िर भी
पूरे आवेग के साथ
पढा, पहचाना,
जाना जाता है
व्याप जाता है
प्रेम
जहां भी
होता है
प्रेम!

12 September, 2011

कवि के साथ: दो कविताएं

कवि के साथ

कवि के साथ बैठा
देखा!
कवि उदास है
विचलित है
आपा-धापी
संवेदनहीन
अखाड़ेबाजों की दुनिया में
उसकी कविता
चारों खाने चित है
वह गढना चाहता है
नए बिम्ब, रूपक
प्रतिमान
नए उनमान
गूंज-अनुगूंज
अपनी कविता में
व्यक्त करना चाहता है
अपने भीतर की
कुलबुलाहट, छटपटाहट को
उसी चरम, रूप में
जिसमें वह है
पर हार जाता है
अभिव्यक्ति के औज़ारों से
दुनियावी बाज़ारों से
इसीलिए
कवि उदास है
विचलित है
सिमटा है
अपने ही भीतर
असहाय
देखते हुए कविता में
कविता से इतर


कई बार बैठा
कवि के साथ
उसकी कविता में
गोष्ठियों, समारोहों में
कभी-कभी घर में भी
और शाम को
वहां भी
जहां अधितर कवि
खुद का आइना दिखाते हैं
पूरी तरह खुलकर
गर्व से बताते हैं
कवि होने के अलावा भी
वे क्या-क्या हैं
और कैसे हैं
जानने की कोशिश की
कवि को
उसकी कविता को
आश्चर्य!
कविता कहीं मेल नहीं खाती
अपने कवि से
कवि!
बिल्कुल ही अलग सा होता है
अपनी कविताई की छवि से

06 September, 2011

हमारे हाथ



अलसुबह
नींद से जागने से
रात को सोने तक
कितनी चीज़ें
गुज़रती है हाथों से होकर
पता नहीं
क्या-क्या करते हैं हाथ
पता नहीं
कुछ भी नहीं रहता टिका
हाथों के हाथ
घिस जाती है
झूठी पड़ जाती है
हस्तरेखाएं भी
वक्त गए
फ़िर भी पाले रहते हैं हम
भ्रम
सब हैं हमारे साथ
सब कुछ है
हमारे हाथ

30 August, 2011

पांच कविताएं: नवनीत पाण्डे



तुमने!
शब्द नहीं
मुझे तोड़ा है
कर दिया
अर्थहीन...


यह शब्द नहीं
मेरा अर्थ है
अगर पा सको...


आसमान को
आस मान


जड़
केवल जड़ नहीं
जन्म, जीवन और मृत्यु है
पेड़ की


पेड़
केवल पेड़ नहीं
एक रास्ता है
जड़ तक पहुंचने का
अगर कोई पहुंच सके...

12 August, 2011

पहाड़ के भीतर


चढते हुए
पहाड़ पर
रास्तों पर चलने के
अभ्यस्त पैर
डगमगाए कई बार
बहुत डराया
चेताया पहाड़ ने
पहली बार महसूसा
और जाना
पहाड़ों से बतियाते हुए
पहाड़ के भीतर
हाड़ ही नहीं
एक कोमल हृदय भी है
नेह भरा



धरती पर
धरती का ही
अंश है पहाड़
पहाड़ के हाड़ों में
भरी है
जाने कितनी उर्वरा
तभी तो पहाड़
दिखता है हरा
एक बार!
सिर्फ़ एक बार
पहाड़ के भीतर कोई
झांके तो जरा...


पहाड़ को
जिसने भी देखा है
होते हुए पहाड़
एक वही जानता है
पहाड़ का भीतर
पहाड़ अपने आप
कभी नहीं खोलता
अपना भीतर


पहाड़ खुदा तो
पहाड़ के भीतर
दिखे
कई पहाड़
अपरिचित था
पहाड़ खुद भी
अपने भीतर के पहाड़ों से



बचपन में घोटे थे
कितने पहाड़े
पर
आया ही नहीं स्मति में
कभी कोई पहाड़
पढते हुए पहाड़े

07 August, 2011

शब्दों से ही लड़ूंगा

मत मानों
मत स्वीकारो
चाहे जितनी बार मारो
नोच लो पर
फ़िर भी उड़ूंगा
नहीं मरूंगा
न ही डरूंगा
किसी भय
जय-पराजय से
नहीं मानूंगा हार....
खुले रखे हैं द्वार
हरेक की
हर सौगात के लिए
घात प्रतिघात के लिए
शब्दों से ही लड़ूंगा
शब्दों की जमात के लिए

27 July, 2011

दो कविताएं

1
किसी के देखे हुए सपनें

सपने में
सपने ने देखा
सपना मेरा
कोई नहीं मानेगा....
भला!
सपनें
कैसे देख सकते हैं सपनें
सपनें तो खुद होते हैं
किसी के देखे हुए सपनें

2
तुम कल हो

तुम कल हो
मैं आज
तुम से मिलने की
प्रतीक्षा में
कल
कल हो जाऊंगा
रह जाऊंगा
यूंही प्रतीक्षारत
आज से कल
कल से
कल होते हुए
तुमसे कभी नहीं मिल पाऊंगा..

22 July, 2011

न कहना..

दबते-दबते
उगना आया
उगते-उगते
पलना
पलते-पलते
फ़लना आया
फ़लते-फ़लते
खिरना

टिप टिप करते
बहना आया
बहते-बहते
झरना
झरते- झरते
झुरना आया
झुरते-झुरते
सहना..

पढते-पढते
लिखना आया
लिखते-लिखते
सीखना
सीखते-सीखते
कहना आया
कहते-कहते
न कहना..

16 July, 2011

खामोश लम्हे दिन,महिनों.... सालों में ढल गए

कहां कहां तक के फ़ासले
तय किए पैरों ने
लेकिन जब भी चाहा
बढना तुम्हारी ओर....
टस से मस नहीं हुए

कैंची की तरह हमेशा
चलती रही ज़ुबां
पर जब आया वक्त
कहने का तुम्हें कुछ....
होंठ तालू से चिपक गए

जाने क्या-क्या कहा-सुना
जाने ज़िंदगी ने कितना कुछ चुना
पर वह न कहा वह न सुना
अरमान हमारे दिल के....
दिल ही में रह गए

एक अजाना रिश्ता, फ़ासला लिए
चलते रहे साथ-साथ
खामोश लम्हे
दिन,महिनों....
सालों में ढल गए

12 July, 2011

स्त्री के मन की किताब..

रोज अलसुबह
सबसे पहले जागकर
सारा घर
बुहारती, संवारती है
लगता है..
वह घर नहीं
घर में रहनेवालों का
दिन संवारती है
रोज गए रात
सबके सो चुकने के बाद
थकी-मांदी
जब बिस्तर पर आती है
उसकी आंखों में नींद नहीं
आनेवाले दिन के
काम होते हैं
स्त्री को पता रहता है
घर में किसे, कब, क्या चाहिए
उसके पास है हरेक के
पल पल का हिसाब
पर कितने घरों में...
कितनों ने पढी होंगी
स्त्री के मन की किताब...?

07 July, 2011

दो कविताएं



गाता हूं कविता

लिखते हुए
गाता हूं कविता
रचता हूं राग
साधते हुए
वादी, संवादी और
वर्जित सुर सारे
अपनी ताल में
तुम सुनते हुए
देखना !
मेरा यह शब्द राग
कहीं कुछ छूट तो नहीं गया?
सुनना-देखना होते हुए



कहां बचे हैं वे शब्द

शब्द
बीज होना चाहते हैं
उगाना चाहते हैं पेड़
कविताओं के
पर कहां बचे हैं
वे शब्द
जो बनें बीज
उगाए पेड़ कविताओं के

02 July, 2011

कुछ कविताएं

१.
जीवन भर
जीवन की किताब के
अपरिचित पाठ्यक्रम के
अपठित अध्याय
बार-बार पढने के बावजूद
बीत जाते हैं हम
उन अध्यायों के
अनुत्तरित प्रश्नों के
उत्तर ढूंढते-ढूंढते

२.

सूरज के आने भर से
नहीं होता
सुबह का होना
न ही नींद से उठ बैठना
सुबह होना है
उठता हूं नींद से
देखने के लिए एक सुबह
एक सुबह देखना चाहती है
मुझे नींद से उठते हुए

३.

हर नदी की किस्मत में
नहीं समंदर
परंतु हर नदी में भरे हैं
अथाह समंदर
सूख जाएं भले ही
रास्ते धार के
पर बहती है
एक धार
अविरल
भीतर
होती हुयी
नदी
४.

झर झर
झर गयी
कुछ भी न रहा शेष
सिवा एक स्मृति के
झरने के

५.

उसके आने में कुछ न था
न ही उसके जाने में
लेकिन
इस आने-जाने के बीच
जो था
वह कभी
किसी
शब्द में नहीं समा पाया

६.

कितने अच्छे दिन थे
जब अच्छे हम थे
अच्छा अच्छा लगता था
सब कुछ
लोग भी थे
अच्छे अच्छे
कितने बदल गए दिन अब
बदल गए हम
बदल गए सब

30 June, 2011

जब भी चाहा लिखना तुम्हें!

इतना लिखा है
लिखता ही रहा हूं
पर जब भी चाहा
लिखना तुम्हें!
लिख नहीं पाता
एक भी शब्द
शब्दकोश का
टिक नहीं पाता

हर उपमा, प्रतीक, अलंकार
लघुत्तम
जान पड़ते हैं
तुम्हारे लिए

जाने क्या-क्या
कितनी बार
लिखा और मिटाया
शब्द-शब्द कसमसाया
फ़िर भी
सिरे नहीं चढ पाया
तुम में ढल न पाया
इबादत में कैसे आता
जब
इबारत में ही नहीं आया

25 June, 2011

दो कविताएं


संवाद



अक्षर
जब
शब्द होता है
कोई न कोई
अर्थ होता है

शब्द
जब
कहा, सुना,
लिखा, पढा जाता है
कोई न कोई
संवाद राह बनाता है

संवाद
जब होठों पर आता है
मौन हकबका जाता है


तुम्हारा मौन


तुम!
और तुम्हारा मौन..
मैं!
और मेरा मैं..
दोनों के बीच
एक अर्थहीन अर्थ
मेरा..तुम्हारा
क्या
हदें
सचमुच
इतना अपरिचित
बना देती है?

10 June, 2011

कंगूरे कह रहे हैं

कहां-कहां
कितनी-कितनी
ज़िंदा है कविता
कहां-कहां
गौरान्वित
कहां-कहां
शर्मिंदा है कविता
जहां-तहां देखो...
कवियों ही कवियों का है
बोलबाला
सब होचपौच
गड़बड़-झाला
क्या है?
कहां है?
कविता का आज
आज की कविता
क्यूं चुप, गूंगी है
कलम की आवाज़
संभावनाओं में जीते हुए
भावनाओं में बह रहे हैं
जड़ें खोखला रही है
कंगूरे कह रहे हैं

03 June, 2011

कइयों को सुखी कर जाऊंगा

मार दिया जाऊंगा
कि मर जाऊंगा
इतना तय है
कइयों को सुखी कर जाऊंगा
खतम हो जाएंगे
मेरे होने के
कई दुख मेरे साथ ही
खुलकर हंसेंगे कई चेहरे
बोलेंगे खुलकर
सोचेंगे खुलकर
कितनों को दे जाऊंगा
एक नया जीवन
मैं मरकर
नहीं कोई आरोप मेरा
किसी पर
जानता, मानता हूं
खड़ा रहा हूं जीवन भर
सब के कटघरे में
आरोपित होकर
पढी हैं सबकी भावनाएं
मेरे लिए मनोकामनाएं
व्यर्थ है कोई भ्रम पालूं
अब कहां रहा माद्दा
कि खुद को संभालूं
सारी दुश्वारियों, बीमारियों के बीज
मैने खुद ही तो बोए हैं
अच्छी तरह जानता हूं
मेरे जन्म की खुशी में
थाली बजानेवाले
मेरे मर जाने के दु:ख में
कितना रोए हैं

31 May, 2011

शिखण्डी ही शिखण्डी

तुम उसे देख रहे हो
जो दिखता ही नहीं
जो दिखता है
उसे तुम देखते ही नहीं
यह तुम्हारा नहीं
समय का स्खलन है
दृष्टियों में
गिध्द ही गिध्द समाए हैं
शब्द
जिह्वा पर ही
घबराए हुए हैं
छूटता ही नहीं
तरकश से तीर
मैदान ए जंग में
शिखण्डी ही शिखण्डी
आए हुए हैं

26 May, 2011

तलाश है उस घर की

तलाश है उस घर की
जिस में लगे कुछ
घर जैसा
न तुम दिखो
संदेहों और
अविश्वासों से घिरी
न मैं रहूं
भयाक्रांत
आशंकाओं से डरा
मिल सकता है हमें क्या
घर ऎसा?
वह घर
सिर्फ़ हो घर
किसी अनहोनी को
जिसकी कभी भी न लगे खबर
न ही
किसी नज़र की नज़र
जिसके सपनों में भी
हकीकतें ही दिखे
हम क्या होना चाहते हैं
यह नहीं
हम
क्या से क्या हुए हैं
यह दिखे....

24 May, 2011

मुझ में रेत

इन रेतीले धोरों पर
बहती रेतीली हवा
मिटा रही है
मेरे कदमों के निशान
फ़िर भी चला जा रहा हूं
अपनी राह
नहीं कहीं कोई छांह
दूर दूर तक बिछी
रेत ही रेत
अथाह
सांवलिया रंग
सांवलिया अंग
रेत के खेत
रेत का समंदर
बाहर रेत
रेत ही अंदर
लिखूं रेत
बांचूं रेत
अरोगूं रेत
बांटू रेत
रेत में मैं
मुझ में रेत

19 May, 2011

हवाओं के रुख

हवा जब भागती है
सिर्फ़ हवा ही नहीं
कई चीजें भागती है
एक समर्पण के साथ
हवा के साथ-साथ
हवा
हिला देती है
उखाड़ देती है
मजबूत जड़ें
खड़े
हो जाते पल भर में
पड़े..
अंधी, बहरी
और दिशाहीन
होती है हवाएं
कोई नहीं चीन्ह पाया
हवाओं के रुख
कब, कौन, कहां
कह पाया
हवाओं से
रुक..!

16 May, 2011

दो कविताएं

१.
सब ने
बारिशें होते देखा
भीगते भिगोते देखा
मैंने!
हां
सिर्फ़ मैंने!
आसमान को
धाड़ धाड़ रोते देखा

२.
नदी के भीतर
जल ही नहीं
एक मन भी है
कल कल छल छल
अकुलाता
हर आंख, कान को
हेर हेर बुलाता
विस्मय
और
विस्मय
दिखाता
सुनो!
सुनो!
यह नाद
नदी का
महसूसो
भीतर
एक बहाव
नदी का

10 May, 2011

गज़ल जैसा कुछ -२ (एक दूसरे से अपनी जान छुड़ाई)

उसको उस में ज़न्नत नज़र आई
उसको उस में खुदा की खुदाई

कई रातें उसने जागकर बिताई
कई दिन उसे भी नींद नहीं आई

दोनों ने मिल के कसमें खाई
न उसने निभाई न उसने निभाई

जब मिले दोनों, हकीकत समझ आई
न उसे वह सुहाया, न उसे वह भाई

उसने अपनी मजबूरियां गिनाई
उसने अपनी मजबूरियां गिनाई

इस तरह दोनों ने किसी तरह
एक दूसरे से अपनी जान छुड़ाई

06 May, 2011

प्रेम ढूंढा जाए

प्रेम
खो गया है
पता नहीं कैसे
बाहर है समझ से
बस इतना पता है
प्रेम अब नहीं रहा
किसी के पास
प्रेम की परिभाषा में है बस
कुछ लुभावने, जादू भरे
शब्दों की बकवास
सब के पास
प्यास ही प्यास
बचे कहां है अहसास
हो न हो विश्वास
अरसे से है तलाश
गुमशुदा प्रेम की
इस निवेदन के साथ कि
यह सच
सार्वजनिक न किया जाए
चुपचाप
हृदय की अतल गहराई
और पूर्ण ईमानदारी से
प्रेम ढूंढा जाए

03 May, 2011

बस यही तो अब हमारे बीच रहा!!

मैं जो कहूंगी
तुम सुनोगे नहीं
मेरा किया तुम्हें
जचेगा नहीं
बात वहीं की वहीं
तुम कहीं मैं कहीं
करना तो आखिर वही होगा न!
जो तुम कहोगे
और हमेशा तुम ही तो कहते हो
मेरा हक तो
इतना भर रहा
करूं हमेशा तुम्हारा कहा
तुम मुझे सहते हो
मैंने तुम्हें सहा
बस यही तो अब
हमारे बीच रहा!!

01 May, 2011

गज़ल जैसा कुछ - १

गिर जाने का उनको, लगता हमेशा डर
रखते हैं हर कदम, सोच समझ कर

हम भले, तुम भले, भला हमारा घर
दुनियां जाए भाड़ में, करें क्यूं फ़िकर

जितना मिले, जहां मिले, चूकना नहीं
सबकी पोल खोलें, खुद की छिपा कर

सड़कों पर उतरे मूरख, हाथों में ले मशालें
उनके घर जला के, चमकाते अपना घर

औरों के कांधे हरदम, लड़े अपनी लड़ाई
जीतें हरेक बाजी, शकुनि सा खेल कर

घर, गली चरते चरते, चर गए पूरा देश
फ़िर भी भरे न पेट, हाकिम हमारे जबर

ये पलें फ़ूलें फ़लें इनकी बला से देश जले
कैसी भी हो कहर , इन पर है बेअसर

28 April, 2011

एक दु:स्वपन (मृत्यु के बाद का)

मृत्यु के बाद
जाने कहां
किस समय
दिन कि रात पता नहीं
मैंने पाया खुद को
अपने पूर्ववर्ती नामचीन
अग्रज कवियों के जमावड़े में
उन आलौकिक और स्मरणीय क्षणों में
मुझे मिला सुख
जय शंकर प्रसाद , निराला, पंत, गुप्त, हरिऔध,
भारती, महादेवी, मुक्तिबोध, अज्ञेय, रघुवीर सहाय,
शमशेर, केदार जी, बच्चन, नागार्जुन बाबा जैसी
और भी जाने कितनी दिव्य विभूतियों के सामीप्य
व सानिध्य का
सबने किया स्वागत आत्मीयता से मेरा
कहा एक स्वर में-
अपनी कविताएं पढिए
मैं अचंम्भित, शंकित, ठगा सा
मैं कविताएं पढूं इन विभूतियों के बीच?
प्रसाद जी ने सस्नेह रखा हाथ सिर पर और बोले-
डरो मत बेटे! यह परंपरा है
इससे हमें पता चलता है
हमारे यहां आने के बाद
वहां क्या चल रहा है

मैंने चारों ओर दृष्टि घुमायी
सब से मौन स्वीकृति पायी
और झिझकते झिझकते
पढने लगा कविताएं
एक दो तीन चार
पता नहीं कितनी लगातार
सुनी सभी ने चुपचाप
किसी ने
कहीं भी नहीं कहा वाह!
सब मौन रहे
मेरी चाहना मिले प्रतिक्रिया
कोई कुछ तो कहे
पर सब चुप अवाक
रहे थे मेरा चेहरा ताक
क्या ऎसी कविताएं लिखी जा रही है वहां?
प्रसाद जी ने छोड़ी लंबी श्वांस
प्रसाद जी! शायद आप कविताओं में
कामायनी तलाश रहे हैं!
कहते हुए निराला हंसे
राम की शक्तिपूजा भी तो नहीं इस में!
प्रसाद निराशा से बोले

गुरुवर! क्षमा
मैंने साहस से प्रतिकार किया
न आपको इसमें मुक्तिबोध की अंधेरे में का बोध होगा
न ही अज्ञेय की असाध्य वीणा या
आप में किसी अन्य की
कविताओं की ध्वनिसुनायी देगी
आपने अपने समय में
अपने समय को अपनी तरह लिखा
हम हमारे समय को
हमारी तरह लिख रहे हैं बस!
और कुछ नहीं

वहां इतना बुरा, दरिद्र समय आ गया है?
एक समवेत करुण गूंज के साथ ही
सब हो गए विलीन
अनंत में
रह गया अकेला मैं
अंत में
पता नहीं किस किसकी
क्या क्या प्रतिक्रियाएं आई होगी बाद में?
इस अधूरे दु:स्वप्न का अवसाद लिए
मैं अभागा!!
पूरी रात जागा

27 April, 2011

पहले से ही लिख दी गई है हार

अनहोनियों के होने भर के अंदेशे से
पाल बैठे हैं जाने कितने भय
हर तरफ़ संशय ही सशंय
कितने अर्थ ढूंढते हैं एक शब्द के
बरतते अपने अपने माफ़िक
बांचते बांचते मुस्कराहट चेहरों की
गढने लगते कथाएं
क्षुद्र मानसिकताओं की
रचने लगते डरावने चेहरे
अपनी भयग्रस्त
सोच के कैनवास पर
चुपचाप देखते हैं बेशर्मी से!
सोच के सामुहिक बलात्कार
चीख चीख कर बताते हैं
सारे नाम अखबार
व्यर्थ सारे प्रतिकार
पहले से ही लिख दी गई है हार
जय सरकार! जय सरकार!!

21 April, 2011

गज़ल जैसा कुछ



बजती है तेरी हंसी संगीत की तरह
गाता हूं तुम्हें मीत मैं गीत की तरह

देखने वाला, रह जाए बस देखता
दिल के अंजुमन में तुम, आती हो इस तरह

जाने कितने दिलों पर गिर जाती है बिजलियां
गेसू को अपने चेहरे पर, गिराती हो इस तरह

मदहोश हो जाता है हर शख्स होशवाला
मस्त नज़र के तीर जब, चलाती हो इस तरह

कोई कहे वाह! कोई कहे आह!
दिलकश अदा से धड़कनें, बढाती हो इस तरह

आता है दौड़ा दौड़ा हर दिल तेरी बज़्म में
दिल दिल से दिल तुम, लगाती हो इस तरह

बुझती ही नहीं कभी, बढती ही जाए प्यास
इतने प्यार से प्यार तुम, पिलाती हो इस तरह

कितना भी कहे ज़ुबां, होता ही नहीं बयां
प्यार में यार दिल ये, ज़ज़्बाती है इस तरह



अनछुई सी छुअन, छू छू जाती है जैसे
हर स्पर्श की स्मृतियां मुझे झन्नाती है ऎसे

बावला फ़िरे है कैसे, खूश्बू कहीं मिले है ऎसे
बरसे तेरी यादें रिमझिम, बरसती बारिश जैसे

दिन वो स्कूली सारे, वो छुप छुप करना इशारे
वो कट्टा कट्टी अनबन, रूठना मनाना कैसे

वो फ़िर कालिज में आना, थोड़ा खिल, खुल जाना
वो उल्लू बनना बनाना, मस्ती बदमाशियां ऎसे

आखिर जीत गए डर, तुम अपने घर, मैं अपने घर
न पलटे तुम इधर को, न ही मैं गुजरा उधर से

19 April, 2011

मेरा रिश्ता संज्ञाओं से नहीं - दो बालिका कविताएं



मेरा रिश्ता संज्ञाओं से नहीं
क्रियाओं से हैं
मेरा वास्ता मंजिलों से नहीं
रास्तों से हैं
अकेला तो कोई भी हासिल कर सकता है, कुछ भी
मेरा दोस्ताना तो काफ़िलों से हैं




देखा है....
पुजते मंजिलों को
रास्तों की कभी
जयकार नहीं देखी
क्या हुआ जो नहीं पहुंचे वहां तक
हौसलों की कभी
हार नहीं देखी

16 April, 2011

गज़ल के बहाने-५

मैं कब कहता हूं,मेरा लिखा कविता है, गज़ल है
लिखने की है हूंस, लिखना मेरा शगल है

मैंने कब कहा, पढना मुझे तुम
फ़िर भी तुमने पढा, मेरा लिखना सफ़ल है

प्रेम है पड़ोसियों से पर रहे अपने घर में
क्यूं तकें पड़ोसियों को, हमारा घर भी तो महल है

आती ही नहीं कलमबंदी, न ही बंधा किसी बाड़े में
अनुभूत बीज बोया कलम हल ने, वही मेरे खेत की फ़सल है

14 April, 2011

गज़ल के बहाने-४

कितनी भली हैं ये खामोशियां
बातें करती है उदासियां

जब भूला दिया याद करनेवालों ने
क्यूं आती है हिचकियां

आंखें रोना चाहती है धाड़ धाड़
रोने ही नहीं देती सिसकियां

जब पैदा करनी होती है दूरियां
गिनाने लगते हैं मजबुरियां

कहां से आएगी रोशनी, ताजी हवा
जब खोलेंगे ही नहीं खिड़कियां

जब तक बंधी है पाल किनारे से
पार कैसे पहुंचेगी कश्तियां

09 April, 2011

गज़ल के बहाने-३

पहचानते हैं चोरों को पकड़ नहीं सकते
मजबूरी है राजा को नंगा, कह नहीं सकते

जानते हैं जगह जगह से, टपकती है छत
रेत की सीमेण्ट से, गढ्ढे भर नहीं सकते

नीम हकीमों के हाथों में, नब्ज़ इस वक्त की
इनके दिए जहर, दवा बन नहीं सकते

भौंकनेवालों को मिल जाते हैं टुकड़े
पालतू हो जाते हैं, फ़िर भौंक नहीं सकते

चोरों को पकड़नेवाले ही जब चोर हैं
चोरों के घर चोर, चोरी कर नहीं सकते

बैसाखियों पर राज, बैसाखियों पर देश
बिन बैसाखी चंद कदम, चल नहीं सकते

हर उम्मीद बेमानी हर मंजिल है दूर
अपने ही फ़न, हम कुचल नहीं सकते

08 April, 2011

मुखौटे लगाना भूल गए

याद करते करते
कई चीजें नहीं रहती याद
कितना भी खपाएं दिमाग
आती ही नहीं याद
किसी को कुछ
बताना भूल गए
किसी से कुछ
पूछना भूल गए
औरों को कहते रहे
सावधान!
ध्यान रखना!
बचना!
खुद ही लेकिन
खुद को
बचाना भूल गए
भूल कर भी जहां
कहने नहीं
छिपाने थे सच
चेहरे पर यारों!
मुखौटे लगाना भूल गए

05 April, 2011

गज़ल के बहाने-२

एक

उल्टे सीधे नम्बर बोलता है
जुआरी लगता है


मजमा लगाए बैठा है
मदारी लगता है


सबको सलाम ठोकता है
दरबारी लगता है


ईश्वर को गाली देता है
भिखारी लगता है



दो



अपना ही चेहरा भूल जाता है
नित नए आईने आजमाता है

हरेक पर अंगुली उठाता है
बाकी किधर है, भूल जाता है

होश की बात करे भी तो कैसे
बस थोड़ी में ही बहक जाता है

कैसी फ़ितरत बना ली है अपनी
देखने, सुननेवालों को तरस आता है

03 April, 2011

इस बार जब देखो

इस बार जब देखो
बूंदों को बरसते हुए
सुनना!
बूंद बूंद एक गाना है

इस बार जब देखो
पंछियों को उड़ते हुए
देखना!
आसमान तुम्हारा है

इस बार जब देखो
किसी चिड़िया को
कबूतरों के पालसिये में नहाते हुए
चुपचाप नहाने देना!
यह अद्भुत अविस्मरणीय नजारा है

इस बार जब देखो
दिन को रात की आगोश में जाते हुए
याद रखना!
जाते को आते का सहारा है

इस बार जब देखो
कोई शव जाते हुए
मत भूलना!
यह भी एक इशारा है

01 April, 2011

घर - दो कविताएं

घर-१

पहले था
एक खुला द्वार
सबके लिए
द्वार के पार
घर की बैठक
बैठक के पार
आंगन
आंगन के पार
भरा पूरा घर

अब-
एक कालबेल है
एक दरवाजा
दरवाजे के पार
ड्राईंग रूम
ड्राईंग रूम में
कई तरह की पेंटिंग्स
फ़िर लॉबी
जिसमें होती है
लॉबिंग
घर के खिलाफ़

घर-२

जहां खड़े हो
वह फ़र्श नहीं छत है
नीचे वाले की
जिसे तुम छत समझ रहे हो
वह फ़र्श है ऊपर वाले का
हंसने की बात नहीं है
यह महानगर है
यहां जो दिखता है
वह होता नहीं
जो होता है
दिखता नहीं

31 March, 2011

इस नपुंसक सन्नाटे में

मुझे पता था
नहीं मिलेगा
मनचाहा
होगा अनचाहा
उस ओर होंगे सब के सब
इस ओर अकेला मैं
मुझे सुनना ही होगा सबको
पर
कभी नहीं दिया जाएगा हक
मुझे अपनी बात कहने का
पता था मुझे
ताज़िंदगी लड़ना होगा
लड़ते लड़ते मरना होगा
इस नपुंसक सन्नाटे में
खुद को ही सदा भरना होगा

28 March, 2011

लड़की / १५ कविताएं

लड़की



लड़की
एक अनचाही मन्नत
अनचाही आगत
यानी कि आफ़त



लड़की को
जिस दिन अहसास दिलाया गया
वह लड़की है
वह अकेली हो गई



लड़की
नहीं चाहती फ़िर लड़की होना
जब मां बनने वाली होती है
सपनें बेटे के ही देखती है



लड़की
लड़ जाना चाहती है हरेक से
अपने लड़कीपन को
बचाने के लिए



लड़की को मालूम है
अपनी नियति
फ़िर भी नहीं रोती
जागती, जगाती, गहरे नहीं सोती



लड़की कहना चाहती है
लड़की से
तुम लड़की हो
पर लड़की को
दया मत बनाओ कभी किसी की



लड़की
पाना चाहती है भरोसा
लड़की का
देकर अपना भरोसा



लड़की
कभी नहीं चाहती
उसे विशिष्ट मिले
यह भी नहीं कि
निकृष्ट मिले



लड़की
मां होने पर भी
लड़की ही होती है
बस!
थोड़ा कम हंसती है

१०

लड़की चाहती है
किसी की होना
पर नहीं चाहती
किसी की होकर
अपने आप को खोना

११

सब चाहते हैं
लड़की में
लड़कीपन
सुंदर दुल्हन
अच्छी मां
कुशल गृहिणी
नहीं चाहते
जो चाहता है
लड़की का मन..

१२

लड़की
जानती है
अपनी दुश्मन वह खुद है
इसीलिए तो
हर लड़की का
अपने ही खिलाफ़ खड़े होना
एक सतत युद्द है

१३

लड़की
जब करने लगती है बात
हक की
आंखों में चुभने लगती है
सब की

१४

लड़की को मना है
आजादी से घूमना फ़िरना
अपने ही घर की छत पर
टहलना
खिड़की के पास बैठना
लड़की की सबसे बड़ी कमजोरी है
लड़की होना

१५

लड़की
खंजर घोप देना चाहती है
हर उस नज़र में
जो उसे लड़की नहीं
माल
चीज
समझती करती है
लड़की प्रतिकार ही नहीं
प्रहार भी करती है

27 March, 2011

तितलियां ढूंढते ढूंढते

बहुत दिनों से
चाहता हूं देखना-
एक तितली
यह भी कोई चाह है!
सोचते होंगे आप..
तितली भी शायद
यही सोचती होगी
पर इन दिनों
सचमुच
यह एक इकलौती चाह
बनी हुयी है मेरी
कि किसी भी तरह, कहीं भी
दिख जाए एक तितली
न गमलों में लगे फ़ूलों पर है
न शहर के पार्कों में
जहां अब पार्क के नाम पर
महज़ कैक्ट्स, या झाड़ रह गए हैं
विकास के ये प्रतिमान
कितने नए हैं
डर है....
सारी तितलियां मर तो नहीं गयी
फ़ूलों को ढूंढते ढूंढते?
और शायद
एक दिन
मैं भी यूं ही पूरा हो जाऊंगा
तितलियां ढूंढते ढूंढते

23 March, 2011

क्या करे कविता..

मौन ने धार लिया है
पूर्णत: मौन
बोलता ही नहीं कुछ
फ़ेंक रहा हूं कब से
शब्द और शब्द
पर होती ही नहीं कहीं
कोई हलचल
इस चुप्पी के तालाब में
सब कुछ नि:शब्द
निस्तब्ध
सिर्फ़ सन्नाटा
करता सबको
सन्नाटे में
भरती ही नहीं रिक्तता
क्या करे कविता....

21 March, 2011

कविता हो जाती है चिड़िया

चिड़िया!!
बहुत ही छोटा पक्षी
किसी काम का है, नहीं सुना
चिड़िया को जब भी देखा
एक छोटी सी
फ़ुर्र फ़ुर्र उपस्थिति के साथ
चिड़ियाते हुए ही देखा
चिड़िया कभी नहीं सुहाती कमरे में
तुरंत उड़ा दी जाती
लेकिन
आ गयी कविता में
और भी बहुत से कवियों की
कविताओं में भी देखा है चिड़िया को
क्या है ऎसा चिड़िया में?
देखा है चिड़िया को
कोशिश की भी जानने की चिड़िया को
पर
सिर्फ़ चीं चीं के सिवा...
कुछ नहीं जान पाया
फ़िर भी
ललचाती है चिड़िया
बार बार आती है चिड़िया
उड़ा देने के बावजूद
कविता हो जाती है चिड़िया

14 March, 2011

गज़ल के बहाने

जो दिल के हैं नहीं दिल से, उन से दिल लगाना क्या
हकीकत तो, हकीकत है, हकीकत को, छुपाना क्या


कभी इस डाल आ बैठे, कभी उस डाल जा बैठे
ये उड़ते हुए कव्वै, इनका आशियाना क्या


ज़ुबां पे क्या, है दिल में क्या, कोई जान न पाए
गुरुघंटाल ये यारों, इन से सर खपाना क्या


बहुत मुश्किल, नामुमकिन, कि ये किसी के हों
यही फ़ितरत रही इनकी, इनको आजमाना क्या

10 March, 2011

मैं अकेला नहीं कहीं

न करे कोई याद
न सही
न करे कोई बात
न सही
न रहे कोई साथ
न सही
न हो सर पर कोई हाथ
न सही
नहीं छीन सकता कोई मुझ से
मेरी लेखनी
जब तक ये मेरे साथ हैं,
मैं अकेला नहीं कहीं

09 March, 2011

तीन कविताएं

एक और आकाश

वह देखता है
अपनी आंखों से
आकाश
मैं देखता हूं
उसकी आंखों में
उसी आकाश में उड़ती
एक नन्हीं चिड़िया भी
अपनी आंखों में एक और आकाश लिए


मेरा ईश्वर!

मेरा ईश्वर!
शब्द हैं...
जो रचते हैं मुझे
लिखते हैं मुझे..
मेरा आवरण, अंत:करण
मेरा संर्घष, समर्पण
जिज्ञासाओं के दर्पण
करते स्तब्ध हर बार..
शब्द बार बार..


कविताओं के बीज बो रहे हैं

होना चाहता था कहानी
पर कविता हो गया
जानते हुए कि
कविता में अब
नहीं दिलचस्पी लोगों की
लोग कहानी हो रहे हैं
अकहानियों में खो रहे हैं
फ़िर भी न जाने किस धुन में
मैं और मेरे जैसे कई जिद्दी
कविताओं के बीज बो रहे हैं

07 March, 2011

कुछ हरा, कुछ भरा

पेड़ बूढा गया है
अब नहीं देता फ़ल
हरियाता भी नहीं
पहले की तरह
न ही कोई
पेड़ की छांह आता है
पेड़
अब
सिर्फ़ पेड़ कहलाता है
पेड़ रोता है
पर
जब भी कोई
पेड़ के पास से
होकर जाता है
कोई नहीं जानता
पेड़ फ़िर से
कुछ हरा
कुछ भरा
हो जाता है

05 March, 2011

मेरी खुशी मेरी उदासी

किन शब्दों में लिखूं
शब्द दिखते हैं
खोते अपनी इयत्ता
शब्दार्थ छोड़
होते जा रहे हैं
अनुलोम-विलोम
तत्सम, पर्यायवाची
अव्यक्त ही रह जाती है
हर बार
मेरी खुशी
मेरी उदासी

03 March, 2011

दिन

दिन
कई दिनों से उदास है
सुबह से शाम तक
दिन
दिनभर अकेला
किसी से नहीं मिलता
किसी से नहीं बोलता
चुपचाप...
उगता,
अपनी ही रौ में
चलता, जलता
चुपचाप...
ढलता

22 February, 2011

हुआ क्या है मेरा?

वे
मुझे अच्छी तरह
जानते पहचानते हैं
पर मैं ही भूल गया
मैं उनके हाथों में खेला था
उनके घर एलबम में
तस्वीरें भी है मेरी
मेरे बचपन की
मेरा बचपन!!
जो खोया था न जाने किधर
वे लाए अपने साथ आज फ़िर
जब आए इधर..
बचपन के साथ
आयी याद मां की
कैसे अचानक ही
हाथ हो गए एकदम नन्हें नन्हें
लगे खोलने
बारखड़ी वाली किताब के पन्ने
क्या खूब हैं उन यादों के गवाक्ष
जब पप्पू सचमुच नहीं हुआ था पास
कितना था बदमाश!
मां कहती थी- सत्यानाश!
क्या होगा तेरा!
मां सच ही कहती थी
हुआ क्या है मेरा?

15 February, 2011

प्रेम भागा फ़िरता है, प्रेम से

जितना भी जाना प्रेम को
मुश्किल रहा पाना प्रेम को

कितना दुरुह ये प्रेमराग
सधे प्रेम तो जागे भाग

कोई कहे तन का आकर्षण प्रेम
कोई कहे मन का समर्पण प्रेम

देते हैं सब प्रेम का आख्यान
किसे है वास्तविक प्रेम का ज्ञान

सब ढूंढते है प्रेम यहां वहां
प्रेम छुपा है न जाने कहां

लोग खोजते हैं प्रेम, प्रेम से
और प्रेम भागा फ़िरता है, प्रेम से

13 February, 2011

सच कहा तुमने! हम मेंढक ही हैं कुएं के

सच कहा तुमने!
हम मेंढक ही हैं कुएं के
हमें नहीं मालूम
क्या है आसमां की हद
कुएं के बाहर की जद
पर तुम तो जानते हो न!
पहचानते हो न!
सारे सच!
बताते क्यूं नहीं
हमें कुएं से बाहर लाते क्यूं नहीं

11 February, 2011

ये एक हकीकत है मित्रों! नहीं कोई कविता नई!!

चीजें करने लगी हैं किस कदर
जीवन में घुसपैठ
दिखाई देता है सिर्फ़
और सिर्फ़ टार्गेट
बुलावे पर कहीं जाता नहीं
किसी को बुलाता नहीं
सारे रिश्ते खतम कर दिए
उच्च शिक्षा के दर्द नए
पहले ए आई आई टी
फ़िर और आगे
फ़िर और आगे
कितना पढ गया बेटा
बहुत आगे बढ गया बेटा
लाखों का पैकेज है
अच्छा कैरियर क्रेज है
एक और खुशखबरी!
शादी भी फ़िक्स कर दी है
कंपनीमैट से ही
पांच साल हो गए
अब्रोड है
आता नहीं
हमें बुलाता,
ले जाता नहीं
कहते कहते
पिता की आंख नम हो गई
मां अंदर कमरे में चली गई
ये एक हकीकत है मित्रों!
नहीं कोई कविता नई!!

07 February, 2011

मां पूछती है- कौन?

मां रोका, टोका करती थी
कई बातों के लिए
पर नहीं मानता था
नहीं जानता था
मां क्यूं रोक, टोक रही है?
क्या इसलिए कि
मां ने देख रखी थी दुनिया
मुझे भी दिखाना चाहती थी दुनिया
और बचाना चाहती थी मुझे उन भूलों, शूलों से
या मां बचना चाहती थी खुद
उस अनहोनी से
जो हो सकती थी मेरी करतूतों से
कितनी ही सीखें दी थी मां ने
किसी लायक बनाने के लिए
पर मैं नालायक ही रहा
अपनी ही राह चलता रहा
न जाने क्यूं?
किस सांचे ढलता रहा
मां ने भी आखिर
कर लिया स्वीकार
थक थकाकर मान ली थी हार
साध लिया मौन
जब भी पुकारता हूं-मां! मां!
मां पूछती है- कौन?

04 February, 2011

प्रेम के अंत की शुरुआत

बोलती तो मैं पहले भी ऎसे ही थी
हंसी में भी कोई नयापन नहीं
फ़िर अब ऎसा क्या हो गया
तुम्हें मेरा बोलना सुहाता नहीं
कहते हो-
हंसना मुझे आता ही नहीं
मेरा साथ भाता नहीं
यह कौन सा और कैसा रंग है
तुम्हारे प्रेम का
क्या सचमुच ही
प्रेम के अंत की शुरुआत है
विवाह

03 February, 2011

कितनी रिव्यू आई...

ढूंढ रहा हूं वे शब्द
जो व्यक्त कर सके उस अनुभूति को
जो मेरे भीतर है
भाषा खामोश
चुप! सारे शब्दकोश
न जाने कब से मेरी कलम
बोये जा रही है बीज शब्दों के
पर कहां होती है फ़सल अच्छी
हर बार वही टुच्ची की टुच्ची
लेता ही रहता हूं विशेषज्ञों की राय
और नुस्खे
आजमाता ही रहता हूं
पारंपरिक,आधुनिक
उत्तर आधुनिक तीर-तुक्के, तौर तरीके
पर सब बेकार
होती ही नहीं अच्छी पैदावार
क्या करें यार!
कहां जा छुपी है रसधार!
लगता ही नहीं जब गंधार..
मध्यम क्या करेगा..
होगा क्या कभी?
मेरी अनुभूति का प्रसव
या
बांझ ही मर जाएगी
लावारिश..बेशिनाख्त
गर्भ में ही गिर जाएगी?
होगी कहीं दरियाफ़्त
कहां करें रपट
कहां है वट
कब तक भोगूं कष्ट
लगती है कहीं कचहरी
लिखनेवालों की?
दुनिया हो गई कार्पोरेट
कार्पोरॆट घरानों की
कौन रखता है खबर
घुमंतू, फ़ेरीवालों की
होती है क्या?
कहीं सुनवाई..
आलोचक तो.....
आप सब जानते हैं भाई!
चलिए छोडिए इस रामायण को!
बताइए!
आपकी कहां कहां..
कितनी रिव्यू आई...

02 February, 2011

हवाओं के साए में एक नन्हा दीया?

मत याद दिलाइए कृपया!
मुझे मेरे दुखों की
सब करते हैं बातें दुख बांटने की
पर मुझे नहीं लगा
बंटा है दुख कभी
जब भी बात चलायी
याद दिलायी किसी ने दुख की
दुख ने और दुखी किया
आंखों को नम किया
कैसे बांट सकता है रोशनी भला!
हवाओं के साए में एक नन्हा दीया?

29 January, 2011

प्रेम की प्रथम अभिव्यक्ति

मुस्कान
अर्थात
एक प्यारा सा गान
प्रेम का
जो गालों की सरगम और
अधरों के साज पर बजते हुए
संपूर्ण
बाहर भीतर को आंदोलित करता है
प्रेम की मानिंद
मुस्कान भी
किस्मत और
मुश्किल से मिलती है
इसीलिए तो मैं बोलूं...
मुस्कान ही
प्रेम की प्रथम अभिव्यक्ति है!!

26 January, 2011

पिंजरे में दुबारा

उसने सचमुच ही कर लिया किनारा
दिल फ़िर हो गया मारा मारा
उसको क्या कहें और क्यूं
दिल का ही तो था कसूर है सारा

कोशिशें तो बहुत की बचाने की
फ़िर भी तिनका तिनका हो गया सारा
उम्र बीत जाएगी शायद अब झुलस में
जाने कब मिलेगा छांव का सहारा

जाने कैसा रिश्ता है कैसा ये लगाव
क्या ये किस्सा क्या ये नज़ारा
उसने तो किया था परिंदा आजाद
फ़िर भी आ बैठा पिंजरे में दुबारा

06 January, 2011

मज़ा जो आता है....

हम अपनी कुछ आदतों से
बहुत परेशान हैं
छोडना चाहते हैं उन्हें
पाना चाहते हैं निजात
पूरी तरह उनसे
उस चाय काफ़ी,
खैनी, सिगरेट, दारु की तरह नहीं
जिसे जब चाहा छोड दिया
और जब चाहे
फ़िर से शुरु हो गए
छोडना चाहते हैं ऎसे कि
स्मृति में भी न रहे
कि कोई कहे
हम ऎसे भी रहे
पर कहां हो पाता है
किसी की भी हंसी उडाने
कहीं पर भी टांग अडाने
अपना उल्लू सीधा करने
अंगुली करने में
मज़ा जो आता है.....
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