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27 November, 2011

यह प्रश्न नहीं और कहां खड़ा रहूं: दो कविताएं

यह प्रश्न नहीं

अब चिठ्ठियां नहीं के लगभग आती है
और शायद कुछ दिनों बाद
जो कभी-कभार आती हैं
वे भी न आए
जैसे
आजकल बच्चों की किताबों से
गायब हो गए हैं चिठ्ठियोंवाले पाठ
परीक्षाओं के प्रश्न-पत्रों में
नहीं पूछे जाते पत्र-लेखन वाले प्रश्न
बच्चों को मालूम ही नहीं
चिठ्ठी क्या होती है?

सारे जीवन-व्यवहार
सिमट कर रह गए हैं
एक नम्बरी यंत्र में
और धीरे-धीरे
सब कुछ बदलता जा रहा हैं
नम्बरों में
नम्बरों से ही होने लगी है अब
पहचान हमारी

एक के बाद कोई नहीं के चक्कर में
मारे जा रहे हैं बेमौत
प्यारे-घरेलू रिश्ते भी

क्या..सचमुच ही
हो जाएंगे दफ़न
इतिहास में?
ताऊ-ताई, चाचा-चाची,
भैया-भाभी,मौसा-मौसी,
बुआ-फ़ूफ़ा,साला-सलहज,
जीजा-साली आदि शब्द और रिश्ते

कितने और किसके
कंधे रहेंगे, बचेंगे
हमारी अंतिम यात्रा में
यात्रा होगी भी कि नहीं?
यह प्रश्न नहीं
कटु यथार्थ है
हमारा ही नहीं
आनेवाली पीढियों का भी
*****


कहां खड़ा रहूं


कहां खड़ा रहूं
जहां भी दिखती है ज़मीन
खड़े रहने माफ़िक
करता हूं जतन
कदमों को टिकाने की

पर जानते ही
खोखलापन-हकीकतें
ज़मीन की
डगमगाने-कांपने लगते हैं
कदम
टूट जाते हैं
सारे स्वप्न
अपने पैरों पर खड़े होने के

सच!
अब सचमुच ही होगा कठिन
ज़मीन
अब नहीं रही
एक अदद आदमी के
खड़े रहने के लिए
एक अदद
ठोस ज़मीन...
*****

2 comments:

  1. उपाधियों में फसा जीवन।

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  2. दोनो ही रचनाये प्रश्न उठाती हैं……………बेजोड्।

    ReplyDelete

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