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21 March, 2010

पुरस्कार विवाद

केंद्रीय साहित्य द्वारा घोषित पुरस्कारों में राजस्थानी भाषा हेतु घोषित पुरस्कार विवाद अभी खतम भी नहीं हुआ और हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा घोषित पुरस्कारों में धांधली का मामला सामने आ गया है, यह हमारे साहित्य के लिए शुभ संकेत नहीं है. इस तरह पुरस्कार देने और लेने के मायने क्या रह जाते हैं, जब सब कटघरे में हैं.

एक लेखक की पहली प्राथमिकता क्या है? मेरे विचार से लेखन, अपनी पूरी ऊर्जा, प्रतिभा, क्षमता से ईमानदार से लेखन के अलावा कुछ हो ही नहीं सकता. पर न जाने क्यूं आज के अधिकतर लेखकों में यह प्राथमिकता अपवाद स्वरूप ही देखने को ही मिलती है. जैसे कि मैंने पहले भी कहा था आज का लेखन और लेखक प्रदूषित हो गया है और यह प्रदूषण किसकी देन है, बताने की जरूरत नहीं है, सब जानते हैं. आधुनिक भौतिक उपभोक्ता बाजारवाद के इस यु़ग में जहां व्यक्ति स्वयं एक वस्तु होता जा रहा है तो साहित्य उससे कैसे अछूता, बचा रह सकता है? आवश्यकता है तो बस ऐसी स्थिति में एक सच्चे और ईमानदार प्रयास के साथ सदाशयता से लेखक और लेखन को इस प्रदूषण से बचाने की. नित नये प्रायोजित व घोषित होनेवाले पुरस्कारों को पाने की होड ही शायद इसका एक मुख्य कारण है. ऐसे में क्या हमारा नैतिक दायित्व नहीं है कि शब्द की मर्यादा को बचाने के लिए हमें ऎसे कुकृत्यों की निंदा करते हुए ऎसे निर्णयों और निर्णय प्रक्रियाओं की ईमानदारी से खुलकर भर्त्सना करनी चाहिए

जिसे लिखना है, लिखे
छपना है, छपे
बिकना है, बिके
प्रार्थना इतनी भर
आदमियत रहे
आदमी दिखे

07 March, 2010

पिछले कई दिनो से नेगचार एनटिवायर्स पढने के बाद साफ दिख रहा है कि आज लेखक और लेखन कितना प्रदूषित हो गया है किस तरह एक ईमानदार मौलिक लेखक और उसका लेखन कुछ महिमामंडित तथाकथित मठाधीश न्यायाधीशों बौधिक दिवालियेपन स्वार्थ और महत्वाकांक्शाओं की भेंट चढ जाता है, यह दुभाग्य ही है कि हमारे देश में दिए जानेवाले अधिकतर पुरस्कार किसी न किसी विवाद और साजिश की छाया में घिरे होते है जिसकी वजह से पुरस्कार देने और लेने वाले दोनों की भावना के साथ साथ पुरस्कारों की विश्वश्नीयता भी आहत होती है हमारे भारतीय साहित्य में ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि सिर्फ कोई पुरस्कार विशेष लेने देने के लिए ही किसी लेखक विशेष को पुरस्क्र्त करने के लिए उससे लिखवाया गया या उसे उसके खेमे के यार दो़स्त निर्ण्णायकों द्वारा अमुक पुरस्कार के लिए अपनी पुस्तक सबमिट करने के लिए कहा गया और पुरस्क्रत कर भी दिया गया और उससे पहले और पुरस्कार मिल जाने के बाद उस भाषा में उस लेखक की अन्य रचना अपवाद स्वरूप ही देखने को मिलती है इससे पुरस्कार के साथ साथ वह लेखक संदेह के घेरे में आ ही जाएगा भले ही वह कितना ही ईमानदारी का दावा करे दुख की बात है कि स्व जनकवि हरी़श भादानी को जो पुरस्कार मिलते मिलते रह गया, वह भी साहित्य अकादेमियों और साहित्य के इन तथाकथित ठेकेदार भ्रष्ट बोतलबाज़ साहित्यकारों और उनके शागिर्दों के भ्रष्टाचार के इसी कमीनेपन का शिकार हुआ है और यह अपराध नया नहीं है और न ही अकेले हरीश जी इसके शिकार हुए हैं. इस प्रकरंण का सच सामने लाने के लिए जहां ने़गचार बधाई का पात्र है, वहीं कुछ प्रतिक्रियाएं बहुत ही निराश करनेवाली, समूचे साहित्यिक परिवेश और परिद्र्श्य का असल चेहरा सामने लाती है, कैसे हम वास्तविकता और सत्य को अनदेखा कर एक गलत निर्णय के विरोध की बजाए, पैरोकार के रूप में खेमों में बंट गए हैं और हमेशा की तरह यह उम्मीद भी बेमानी है कि इस विवाद का कोई असर, ईमानदारी, बदलाव निंर्ण्णय का पुनरावलोकन हमें देखने को मिलेगा. जैसा कि होता आया है, हम सब स्वीकार कर लेंगे. कोई कुछ बोलेगा तो उसे उसकी औकात याद दिला दी जाएगी जैसे भाई संजय पुरोहित ने राजस्थानी के वरिष्ठ साहित्यकार बी एल माली अशांत की ओर इशारा किया. क्या करें हम ऐसे ही हैं, राजस्थानी में एक कहावत है‍ ’वाह म्हारा भाई सप्पम पाट, मै थनै चाटू, थू म्हनै चाट’ हम भी तो लाईन में हैं न, किसी न किसी पुरस्कार की.
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