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07 June, 2014

देख! नागार्जुन बाबा व अन्य कविताएं



बीस रुपए प्रति लीटर 


गंगा! आजकल
हिमालय,
हरिद्वार,
इलाहाबाद,
बनारस में नहीं
प्लेटफार्म,
बस स्टैंड,
बाजार की
बंद बोतल में है
बीस रुपए प्रति लीटर
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अपने समय के ऊंट
(दल- बदलुओं से क्षमा सहित) 

अपने समय के
ऊंट हैं वे
जगह- मौके देख!
करवट बदल लेते हैं
+++++++

फिर काम आने के लिए 

हम सिर्फ़ औज़ार भर हैं
तुम्हारे हाथों के
जिन्हें तुम अपने मतलब,
समय- असमय
तेल, धार दे
रंवा करते रहते हो
जैसे, जहां काम लोगे तुम
काम आएंगे हम
हम तो हैं ही
बस, काम आने के लिए
जैसे ही पूरे होंगे
तुम्हारे मंसूबे
रख दिए जाएंगे संभाल कर
फिर उसी टूलबॉक्स में
फिर काम आने के लिए
+++++++

देख! नागार्जुन बाबा

देख! नागार्जुन बाबा
कांव कांव कर कागा
मार चोंच फ़िर भागा
बिन छेदों की सुइयां
क्या करेगा धागा
नागा रहेगा नागा
बेसुरे इक्कठ्ठे सारे
बाजे डफ़ली बाजा
गाते राग अरागा
चोर मौसेरे डाले
लोकतंत्र घर डाका
जनपथ ठगा अभागा
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ये सड़कें थोड़े ही हैं

इन सड़कों का कोई इतिहास नहीं है
ये अचानक ही प्रकट हुयी हैं
जिन पर
धकियाया जा रहा है हमें
छूने को वे सपनीली
रोशनियों भरी मीनारें
जो अपने भीतर
न जाने कितने अदेखे
अंधेरे समेटे हैं
और कोई रास्ता,
चारा नहीं है
हमें इन्हीं पर चलना होगा
भले ही यात्राएं
न हों निरापद
इनके टोल भरना होगा
इन अंधेरों को ढोना ही है
जानते हुए कि देर- सवेर
ये सड़कें टूट ही जानी हैं
ये सड़कें थोड़े ही हैं
योजनाकारों-निर्माताओं,
उद्घाटनकर्ताओं के बीच हुयी
दुरभिसंधियों की
अदेखी-अलेखी कहानी है
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अब! सिर्फ़

होते ही सूर्यास्त
वे चांद निकल पड़े
अपने- अपने राज- प्रासादों से
राजहंसों पर सवार हों
शिकार पर
धीरे- धीरे, बेआवाज़
और जुट गए
चुपचाप!
अंधेरों की आगोश में
फ़ैली बस्तियों में
टिमटिमाती लालटेनों, दीयों
मोमबत्तियों की बातियों
रोटियां सेंक रहे
चूल्हों के सीनो में
धधक रही आग को
एक -एक कर बुझाने में
तब तक,
जब तक....
धरती पर पसरी
अंधेरी रातों का
दिपदिपाता
वह आसमान
पूर्णत:
सितारों विहीन
घुप्प अंधेरो में डूब
बियाबान नहीं हो गया
अब! सिर्फ़
न खतम होनेवाली
रात बची है
अपने घुप्प अंधेरों में
रुदन करती हुयी
या
उन चांदों की चमचमाती आंखे
अपने राज- प्रासादों की
रोशनियों में
लालटेनों, दीयों,
मोमबत्तियों
और चुल्हों की बुझी आग
अपनी आंखों में भरती हुयीं
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