Search This Blog

21 July, 2010

कितना मुश्किल है

मैं अंधेरे से कभी नहीं डरता
अंधेरा,
अंधेरा ही होता है
इकसार
पर बहुत डराती है
रोशनियां
रोशनी
कर देती है चकाचौंध
अपनी भांत भांत की रंगीनियों से
भांत भांत के बिम्बों से
भांत भांत के रूपों से

मैं नहीं होता किसी रोशनी से
खुद रोशन,
नहीं चाहता किसी को डराना
कितना मुश्किल है
अंधेरे के साथ साथ
खुद अंधेरा हो जाना
रोशनी की चकाचौंध से
खुद को बचाना!!

16 July, 2010

शहर में लड़की

शहर में लड़की
जब भी आती है निकल कर
घर से बाहर
शहर की गली-सड़क-चौराहे पर
लड़की नहीं होती
मेनका होती है
और -
हर गली,सड़क और चौराहा
जहां-जहां से होकर गुजरती है लड़की
होता है-
विश्वामित्रों की भीड़ से अटा
एक तपोवन

14 July, 2010

अचिर मौन का चिर संवाद

जिसे
जो लिखना है
लिखे
जहां
जैसे छपना है
छपे
जहां
जैसे बिकना है
बिके
प्रार्थना इतनी भर
आदमियत रहे
आदमी दिखे
लिख सके तो-
अपने आपको
सच सच लिखे,
लिखने का आगाज़ हो जाएगा.
लिखा हुआ हर सच्चा शब्द,
उसके अचिर मौन का
चिर संवाद हो जाएगा.

12 July, 2010

हम भी मर जाएंगे

क्यूं छोडें अपनी ज़मीं
क्यूं छोडें अपना आसमां
क्यूं तोडें खुद से यकीं
क्यूं छोडें अपना रास्ता
किया क्या हासिल और क्या कर लेंगे
क्या बदला है और क्या बदल देंगे
कितने तमगे लेंगे,कितने देंगे
किसकी जय बोलेंगे,किससे जय बुलवाएंगे
अपना ज़मीर मार, कितना जी लेंगे
सब मर जाते हैं, हम भी मर जाएंगे

10 July, 2010

उम्मीद

वो कत्ल करते रहते हैं
हम रोज़ मरते रहते हैं
वो बच निकलते हैं
हम भुगतते रहते हैं
अदालतें हैं, हाकीम हैं और गवाह भी
ताउम्र कटघरे बदलते रहते हैं
इंसाफ़ मिलता है नाइंसाफ़ियों को
फ़िर भी
इस नाउम्मीदी व्यवस्था से
उम्मीद के सहारे
ताज़िंदगी
हम उम्मीद करते रहते हैं

08 July, 2010

शहर में लड़की

शहर में लड़की
खुद बताती है
वह लड़की है
उसने हटवा दिए हैं सारे पर्दे
वह जान गई है सब रिश्तों की गहराई
वह पढ़ चुकी है हर किताब की ऊंचाई
उसने नाप ली है हर हद की लंबाई-चौड़ाई
अब वह नहीं रहती
स्कूल-कॉलिज की चारदीवारी में
वह आने लगी है
अपने मनचाहे पार्क-रेस्त्रां-बाज़ारों में
कहां? कब? किसके साथ?
प्रश्न बेमानी है
लड़की जाग चुकी है
अपना हक मांग चुकी है
हर काम सोच-समझ कर करती है
बच्ची नहीं है
सयानी है।

07 July, 2010

छूटे हुए संदर्भ

जहां पहुंच कर
होंठ हो जाते हैं गूंगे
आंखें अंधी और कान बहरे
समझ,नासमझ
और मन
अनमना
पूरी हो जाती है हद
हर भाषा की
अभिव्यक्ति बेबस
बंध, निर्बंध
संवेदन की इति से अथ तक
कविता, कहानी, उपन्यास
लेखन की हर विधा से बाहर
जो नहीं बंधते किसी धर्म,संस्कार,
समाज, देश, काल, वातावरण जाल में
नहीं बोलते कभी
किसी मंच, सभा, भीड़, एकांत,
शांत-प्रशांत में
भरे पड़े हैं
जाने कहां-कहां
इस जीवन में
इसी जीवन के
छूटे हुए संदर्भ

04 July, 2010

दिल्ली

दिल्ली
केवल नाम नहीं है किसी षहर का
पहचान है एक देष की
प्राण है एक देष का
यह अलग बात है-
दिल्ली में एक नहीं
कई दिल्लियां हैं-
पुरानी दिल्ली, नई दिल्ली,
दिल्ली कैंट, दिल्ली सदर आदि- आदि
हर दिल्ली के अपने रंग,
अपने कानून- क़ायदे
आपकी दिल्ली, मेरी दिल्ली
ज़ामा मस्ज़िद वाली दिल्ली
बिड़ला मंदिर वाली दिल्ली
शीशगंज गुरूद्वारे वाली दिल्ली
चर्चगेट वाली दिल्ली
साहित्य अकादमी वाली दिल्ली
हिन्दी ग्रंथ अकादमी वाली दिल्ली
एनएसडी वाली दिल्ली
जवाहरलाल नेहरु विष्वविद्यालय वाली दिल्ली
महात्मा गांधी विष्वविद्यालय वाली दिल्ली
दिल्ली की सोच में
दिल्ली दिल वालों की है
दिल्ली से बाहर की खबर के अनुसार
दिल्ली दिल्ली वालों की है
दिल्ली किसकी है?
इस प्रश्न का सही- सही उत्तर
स्वयं दिल्ली के पास भी नहीं है
वह तो सभी को अपना मानती है
कश्मीर से कन्याकुमारी तक
पहुंचता है दिल्ली का अख़बार
हर गली, गांव, शहर की दीवारें उठाए हैं
दिल्ली के इष्तहार
आंखे देखती हैं- दिल्ली
कान सुनते हैं- दिल्ली
होंठ बोलते हैं- दिल्ली
सब करते हैं-
दिल्ली का एतबार
दिल्ली का इंतज़ार
दिल्ली की जयकार
पैरों में पंख लग जाते हैं
सुनते ही दिल्ली की पुकार
दुबक जाते हैं सुनते ही
दिल्ली की फटकार
दिल्ली की ललकार
सब को जानती है दिल्ली
सब को छानती है दिल्ली
सब को पालती है दिल्ली
सब को ढालती है दिल्ली
दिल्लीः
अर्थात् प्रेयसी का दिल
दिल्लीः
अर्थात् प्रेमी की मंजिल
दिल्लीः
अर्थात् सरकार
दिल्लीः
अर्थात् दरबार।

02 July, 2010

एक और प्रेम कविता

प्रेम
तुम केवल प्रेम क्यूं नहीं हो
क्यूं है तुम्हारे साथ
तुम्हारी चाह
तुम्हारी आह
क्यूं बेकल है हर कोई
जानने के लिए
तुम्हारी थाह

ओ प्रेम!
आखिर क्या है
तुम्हारा रूप, स्वरूप
तुम!
मौन
वाचाल
भीतर
बाहर
व्यक्त
अव्यक्त
निज
सार्वजनिक
क्या हो तुम?
क्या है तुम्हारी पहचान
कहां है तुम्हारा
उद्भभव, अवसान

प्रेम!
कहां कहां व्याप्त हो तुम
और कहां नहीं
सब करते हैं तुम्हारी बडाईयां
न जाने कितने
जीत, हार चुके तुम्हारे दम
अपनी जीवन लडाईयां
झेल चुके तन्हाईयां, रुस्वाईयां

और
आज भी जारी है अनवरत
न जाने कहां कहां
किस किस रूप में
कितने संग्राम
कत्ल ए आम

प्रेम!
तुम्हें शत शत प्रणाम
कितना छोटा
और आसान है
तुम्हारा नाम
पर
कितनी दुरुह,
दुर्लभ, दुर्गम
तुम्हारी राह
तुम्हारी चाह
अथाह!
जो पाए, बोराए
स्वांग रचाए
रंग में तेरे
रंग रंग जाए.........
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...