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21 July, 2010

कितना मुश्किल है

मैं अंधेरे से कभी नहीं डरता
अंधेरा,
अंधेरा ही होता है
इकसार
पर बहुत डराती है
रोशनियां
रोशनी
कर देती है चकाचौंध
अपनी भांत भांत की रंगीनियों से
भांत भांत के बिम्बों से
भांत भांत के रूपों से

मैं नहीं होता किसी रोशनी से
खुद रोशन,
नहीं चाहता किसी को डराना
कितना मुश्किल है
अंधेरे के साथ साथ
खुद अंधेरा हो जाना
रोशनी की चकाचौंध से
खुद को बचाना!!

2 comments:

  1. नवनीत जी ,
    नमस्कार !
    एक लम्बे अरसे बाद आप का पढने का सौभाग्य मिला वो भी सुखद , असर छोडती है आप कि रचना ,
    साधुवाद

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