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29 November, 2010

सच जानना आसान है पर....

देखो यार!
तुम उसे वह सब मत बताना
जो मैंने बताया है तुम्हें
वह भी पक्का यार है अपना
पर
उसके मन में कोई बात
खटती नहीं है
जानता हूं
उसके पेट कोई पाप नहीं है
पर हर बात
हर जगह
हर किसी के सामने कह देना भी
कोई बात नहीं है...
सच जानना आसान है
पर
सच पचाना
स्वीकारना
कहना, सुनना
कितना मुश्किल!
इसीलिए तो हम
कितने ही सच
जानबूझ कर छुपा जाते हैं
एक दूसरे के कानों में फ़ुसफ़ुसाते हैं
कहने की जगह गूंगे
देखने की जगह अंधे
सुनने की जगह बहरे हो जाते हैं

गज़ल के बहाने

बात बात पर सवाल करता है
क्या वह सच में मुझसे प्यार करता है

लफ़्ज़ों से दिल पे मार करता है
क्या वह सच में मुझसे प्यार करता है

निजता को सरे बाज़ार करता है
क्या वह सच में मुझसे प्यार करता है

मारता है खुद भी मरता है
क्या वह सच में मुझसे प्यार करता है

सपनों को तार तार करता है
क्या वह सच में मुझसे प्यार करता है

25 November, 2010

राग विदेश

नहीं समझे!
समझेंगे भी नहीं
क्यूंकि यह
राग देश नहीं
राग विदेश है
इसमें कोमल,शीतल प्रपात नहीं
दहकते अंगारे, धधकती आग है
क्या राग है....
नहीं किसी सप्तक में
इसके सुर
समझ से बाहर हैं
इसकी खूबी और गुर
इसकी हर ताल है
बेताल
लेकिन फ़िर भी बचाए है
धमाल
दीवाना बनाएं हैं
हर किसी को
जिसे देखो गाता(चिल्लाता) मिलेगा इसी को
इसी के रंग में रंग जाओ
सब गाओ!
अपने गले तराश कर
क्यूंकि-
इसी में तो छुपे हैं भविष्य के
सारे आस्कर.....

21 November, 2010

स्वस्थ नहीं हैं शब्द

कई सालों से
स्वस्थ नहीं हैं शब्द
न जाने किन किन बीमारियों ने
जकड लिया है उनको
अंग्रेजीदां डाक्टर भी आ रहे हैं
अपनी वैश्विक विशेषग्यताओं से लकदक
नई नई विधियों से
शब्दों की शल्य क्रिया किए जा रहे हैं
शब्द तडफ़डा रहे हैं
कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं
अपने आपको असहाय पा रहे हैं
होते जा रहे हैं निरीह निष्प्राण
किए जा रहे हैं नित नए परीक्षण
होता जा रहा है उनके अर्थ का क्षरण
जाने और कितना
कब तक सहना होगा
क्या कोई समझ पाएगा शब्दों की पीडा को
या सिर्फ़ मूक दर्शक बन
बस! देखना होगा
आधुनिक शब्द शल्य कर्ताओं की
इस चिकित्सकीय क्रीडा को

16 November, 2010

हर बार की तरह

हर बार की तरह
इस बार भी चला गया वह
झगडा करके
हर बार की तरह
इस बार भी कोई खास वजह नहीं थी
झगडे की
उसे झगडना ही था
सो झगडा
उसे जाना ही था
सो गया
फ़िर आने के लिए
फ़िर झगडने के लिए
नया कुछ भी नहीं था
न वह
न मैं
न ये झगडे
न यह आवाजाही
सिवा इसके कि
प्यार से
प्यार की
एक नई पहचान हो रही थी

12 November, 2010

ये स्त्री जात......

स्त्री सबसे बांटती है
अपने स्त्री होने का सुख
पर नहीं बांटती
किसी से भी
अपना एक भी दुख
स्त्री
सब कुछ सुनती है
पर
कहती कुछ भी नहीं
कभी किसी से
कितना बोलता है
स्त्री का मौन
पर कौन सुनता है
खुद
स्त्री भी नहीं सुनती
अपने मन की कोई बात
आखिर क्यूं है ऎसी?
ये स्त्री जात......

09 November, 2010

याद बहुत आते हैं कुछ लोग

याद बहुत आते हैं कुछ लोग
तस्वीर हो जाने के बाद
हम कितने अकेले हो जाते हैं
उनके अचानक,
चले जाने के बाद
कल ही तो मिले थे
एकदम ठीक ठाक
कितनी मज़ेदार थी
उनसे मुलाकात
फ़िर ऎसा क्या हो गया
यह अकस्मात
उन चेहरों से हम
अक्सर बतियाते हैं
स्मृतियों में कितने ही गवाक्ष
अनायास खुल जाते हैं
होठों से निकल पडती है
उन्हीं की कही कोई बात
बात बात में हो जाती है
बस, उन्हीं की बात
उठने, बैठने, चलने,
बोलने का ढंग
सजीव हो उठते हैं
तस्वीर के हर रंग
करने लगते हैं अनायास
हम उनसे संवाद
रह रह कर यूं
सताती उनकी याद

06 November, 2010

हे ईश्वर!

हे ईश्वर!
लोग कहते हैं
तुम सब देखते हो
कुछ नहीं छिपा तुम से
मैं बचपन से ही
देखता आया हूं तुझे
पर क्या तुमने भी कभी
देखा मुझे?
पता नहीं
किसने थमायी थी
मेरी अंगुली, तुझे
उस भूल ने आज तक
नहीं जीने दिया चैन से मुझे
मैंने कभी, कहीं नहीं देखा तुझे
पर देखता आया हूं
तुम्हारे ठाठबाट और मज़े
हर दिन सजेधजे
सबको पजाए रहते हो
पर खुद!!
खुद आज तक कहीं नहीं पजे

01 November, 2010

ज़िंदगी के एलबम में

ज़िंदगी के एलबम में
कुछ तस्वीरें
होती हैं कितनी सुंदर
जब तब
आ ही खडी होती है सामने
साल, महिने
समय का हर बंध लांघकर
हम
जीने लगते हैं पुन:वे पल
अपनी स्मृतियों के आंगन
उन तस्वीरों के साथ
अपने ही भीतर
कितने प्यारे,
जरुरी है ये एलबम
ज़िंदगी में
ज़िंदगी के लिए
कितना तडफ़डाती है ज़िंदगी
ऎसे एलबमों के लिए
तस्वीरों में कैद पलों के साथ
फ़िर जीने के लिए
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