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27 July, 2011

दो कविताएं

1
किसी के देखे हुए सपनें

सपने में
सपने ने देखा
सपना मेरा
कोई नहीं मानेगा....
भला!
सपनें
कैसे देख सकते हैं सपनें
सपनें तो खुद होते हैं
किसी के देखे हुए सपनें

2
तुम कल हो

तुम कल हो
मैं आज
तुम से मिलने की
प्रतीक्षा में
कल
कल हो जाऊंगा
रह जाऊंगा
यूंही प्रतीक्षारत
आज से कल
कल से
कल होते हुए
तुमसे कभी नहीं मिल पाऊंगा..

22 July, 2011

न कहना..

दबते-दबते
उगना आया
उगते-उगते
पलना
पलते-पलते
फ़लना आया
फ़लते-फ़लते
खिरना

टिप टिप करते
बहना आया
बहते-बहते
झरना
झरते- झरते
झुरना आया
झुरते-झुरते
सहना..

पढते-पढते
लिखना आया
लिखते-लिखते
सीखना
सीखते-सीखते
कहना आया
कहते-कहते
न कहना..

16 July, 2011

खामोश लम्हे दिन,महिनों.... सालों में ढल गए

कहां कहां तक के फ़ासले
तय किए पैरों ने
लेकिन जब भी चाहा
बढना तुम्हारी ओर....
टस से मस नहीं हुए

कैंची की तरह हमेशा
चलती रही ज़ुबां
पर जब आया वक्त
कहने का तुम्हें कुछ....
होंठ तालू से चिपक गए

जाने क्या-क्या कहा-सुना
जाने ज़िंदगी ने कितना कुछ चुना
पर वह न कहा वह न सुना
अरमान हमारे दिल के....
दिल ही में रह गए

एक अजाना रिश्ता, फ़ासला लिए
चलते रहे साथ-साथ
खामोश लम्हे
दिन,महिनों....
सालों में ढल गए

12 July, 2011

स्त्री के मन की किताब..

रोज अलसुबह
सबसे पहले जागकर
सारा घर
बुहारती, संवारती है
लगता है..
वह घर नहीं
घर में रहनेवालों का
दिन संवारती है
रोज गए रात
सबके सो चुकने के बाद
थकी-मांदी
जब बिस्तर पर आती है
उसकी आंखों में नींद नहीं
आनेवाले दिन के
काम होते हैं
स्त्री को पता रहता है
घर में किसे, कब, क्या चाहिए
उसके पास है हरेक के
पल पल का हिसाब
पर कितने घरों में...
कितनों ने पढी होंगी
स्त्री के मन की किताब...?

07 July, 2011

दो कविताएं



गाता हूं कविता

लिखते हुए
गाता हूं कविता
रचता हूं राग
साधते हुए
वादी, संवादी और
वर्जित सुर सारे
अपनी ताल में
तुम सुनते हुए
देखना !
मेरा यह शब्द राग
कहीं कुछ छूट तो नहीं गया?
सुनना-देखना होते हुए



कहां बचे हैं वे शब्द

शब्द
बीज होना चाहते हैं
उगाना चाहते हैं पेड़
कविताओं के
पर कहां बचे हैं
वे शब्द
जो बनें बीज
उगाए पेड़ कविताओं के

02 July, 2011

कुछ कविताएं

१.
जीवन भर
जीवन की किताब के
अपरिचित पाठ्यक्रम के
अपठित अध्याय
बार-बार पढने के बावजूद
बीत जाते हैं हम
उन अध्यायों के
अनुत्तरित प्रश्नों के
उत्तर ढूंढते-ढूंढते

२.

सूरज के आने भर से
नहीं होता
सुबह का होना
न ही नींद से उठ बैठना
सुबह होना है
उठता हूं नींद से
देखने के लिए एक सुबह
एक सुबह देखना चाहती है
मुझे नींद से उठते हुए

३.

हर नदी की किस्मत में
नहीं समंदर
परंतु हर नदी में भरे हैं
अथाह समंदर
सूख जाएं भले ही
रास्ते धार के
पर बहती है
एक धार
अविरल
भीतर
होती हुयी
नदी
४.

झर झर
झर गयी
कुछ भी न रहा शेष
सिवा एक स्मृति के
झरने के

५.

उसके आने में कुछ न था
न ही उसके जाने में
लेकिन
इस आने-जाने के बीच
जो था
वह कभी
किसी
शब्द में नहीं समा पाया

६.

कितने अच्छे दिन थे
जब अच्छे हम थे
अच्छा अच्छा लगता था
सब कुछ
लोग भी थे
अच्छे अच्छे
कितने बदल गए दिन अब
बदल गए हम
बदल गए सब
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