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08 September, 2013

खिलाफ़ों के खिलाफ़

जैसी भी है अपनी खुश्बू

कभी नहीं मुरझाता
न ही सूखता
फ़ेंका जाता
कचरे मानिंद

खिला रहता
बिखेरता रहता
अपनी सीमाओं में
जैसी भी है अपनी खुश्बू

अगर तुमने
तोड़ा न होता!
*****

देखना! तुम!

भले ही छीन लो पतवार
छोड़ दो बीच मझधार
खिलाफ़ धार के
फ़िर भी हम 
होगें पार
देखना! 
तुम!
*****

खिलाफ़ के खिलाफ़

खिलाफ़ हवाओं के
कब रहा आसान 
भरना उड़ान
पाना आसमान

फ़िर भी उड़ता हूं
हवाओं के खिलाफ़
आसमान के खिलाफ़
और सारे 
खिलाफ़ों के खिलाफ़
*****

पता चला-

जिन्हें हमेशा मैंने 
अपने भीतर 
मिश्री सा सहेजे रखा 

पता चला-

उन्होंने मुझे 
अपने भीतर तो क्या
आस-पास, दूर-दूर भी 
नहीं देखा-रखा
*****

ठीक

सिर्फ़ तुम्हारे
और मेरे मानने से
ठीक नहीं होगा ठीक
ठीक तभी है ठीक
जब सभी मानें ठीक
*****

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