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29 October, 2010

जिस दिन गई थी तुम

जिस दिन गई थी तुम
चली गई थी
जीवन की खुशी, होठों की हंसी
निजता के अतरंग क्षण
अभीभूत अनुभूतियां
आलौकिक स्मृतियां
वर्तमान के सुखन
भविष्य के स्वप्न
और सारे स्पर्श,
हम दोनों के बीच के
अलौकिक संवाद, विवाद
जिनसे होता था सांसो में
एक सांगितिक नाद
अकेली कहां गई थी तुम
तुम्हारे साथ ही तो
चला था
मेरी बची हुई उम्र का मौन
पूछता-
मैं कौन
तुम कौन
इस अधूरे रहे प्रेम का
पूरा जीवन
जिसमें जिए थे हम
एक दूजे के लिए
और
तुम्हारे अनुसार
हम कुछ भी नहीं
एक दूजे के
जानते हुए भी
हो जाएं अब से
अनजान एक दूजे से
यह असंभव
कैसे होगा संभव
तुम्हें जानती भी नहीं कि
जिस दिन से गई हो तुम
सो नहीं पाया ठीक से
चाय भी नहीं बनती अच्छे से
रोटीयों के साथ साथ
जल जाती है अंगुलियां
बंद ही नहीं होती हिचकियां
चिडचिडा हो गया है घर
आ बसे हैं
जाने कितने डर
आंखे लगी रहती है दरवाज़े पर
हाथ में थामें हाजिरी रजिस्टर
क्या तुम्हें!
जरा भी तरस नहीं आता
अपनी अनुपस्थिति पर?

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