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26 October, 2010

हम कितने बेचारे

कभी सोचते थे
घर बैठे बैठे
चलो बाज़ार हो आएं
थोडा घूम आएं
कैसे बदल गया अचानक
जीवन का मिज़ाज
घर ही में आ घुसा है
शहर, देश ही नहीं,
पूरे विश्व का बाज़ार आज
खो गई है भीड में
सारी निजता
घर घर में घर कर रही है
मानसिक वैचारिक दरिद्रता
मरने, झरने लगी है
मनुता, अस्मिता
उफ़! यह रिक्तता
कैसी विवशता
हर घर बाज़ार
हर शख्स औज़ार
बचपन से पचपन
सब अभिनेता
क्रेता विक्रेता
इश्तिहार
जीत हार
इतने अनार
सब बीमार
सब कुछ स्वीकार
कहां है प्रतिकार
हमारे हाथ, साथ
सिर्फ़
प्राणहीन नारे हैं
हम
कितने बेचारे, बेसहारे हैं

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