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20 August, 2010

बातें हकों की

छोडो बातें हकों की
नेतागिरी है सिर्फ़ नफ़ों की
नारे सिर्फ़ नारे हो गए
संगठन बेचारे हो गए
मशालें अब कौन थामे
हाथ हलकारे हो गए

ज़िंदगी का मतलब
सिर्फ़ सांसे लेना हो गया
रगों का खून,
लाल रंग हो के रह गया
अर्थ और स्वार्थ के
वारे न्यारे हो गए

ज़ुबां बेज़ुबान,
कान भी अकान है
बाज़ारों के मकडजाल में
खोया, उलझा इंसान है
हम कितने मजबूर
बेसहारे हो गए

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