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14 October, 2010

कुछ आहटें

कुछ आहटें
कितनी अधिक परिचित होती है
आईने सी
कभी भी कहीं भी
आ धमकती है
सबके सामने
सबके बीच
बेआवाज़
लेकिन
कितना कोलाहल भर देती है
किसी को पता भी नहीं चलता
हम सबके साथ
सबके बीच होते हुए भी
किसी के साथ
किसी के बीच नहीं है
अपनी ही किसी
आहट के बीच,
कितनी आहत के साथ हैं

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