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02 July, 2010

एक और प्रेम कविता

प्रेम
तुम केवल प्रेम क्यूं नहीं हो
क्यूं है तुम्हारे साथ
तुम्हारी चाह
तुम्हारी आह
क्यूं बेकल है हर कोई
जानने के लिए
तुम्हारी थाह

ओ प्रेम!
आखिर क्या है
तुम्हारा रूप, स्वरूप
तुम!
मौन
वाचाल
भीतर
बाहर
व्यक्त
अव्यक्त
निज
सार्वजनिक
क्या हो तुम?
क्या है तुम्हारी पहचान
कहां है तुम्हारा
उद्भभव, अवसान

प्रेम!
कहां कहां व्याप्त हो तुम
और कहां नहीं
सब करते हैं तुम्हारी बडाईयां
न जाने कितने
जीत, हार चुके तुम्हारे दम
अपनी जीवन लडाईयां
झेल चुके तन्हाईयां, रुस्वाईयां

और
आज भी जारी है अनवरत
न जाने कहां कहां
किस किस रूप में
कितने संग्राम
कत्ल ए आम

प्रेम!
तुम्हें शत शत प्रणाम
कितना छोटा
और आसान है
तुम्हारा नाम
पर
कितनी दुरुह,
दुर्लभ, दुर्गम
तुम्हारी राह
तुम्हारी चाह
अथाह!
जो पाए, बोराए
स्वांग रचाए
रंग में तेरे
रंग रंग जाए.........

8 comments:

  1. बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति...प्रेम ...सच दुरूह है..

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  2. बहुत बढ़िया रचना!

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  3. सुन्दर रचना। 'प्रेम' की गंगा बहाते चलो।

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  4. इस अद्भुत प्रेम पूर्ण रचना को मेरा नमन है...आपकी लेखनी की जितनी प्रशंशा की जाए कम है...सुन्दर शब्द और अत्यंत सुन्दर भाव पिरोये हैं आपने अपनी रचना में...बहुत बहुत बधाई...
    नीरज

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  5. बेहद सुन्दर परिभाषित किया है।

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  6. बेहतरीन कविता. बहुत खूब!

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