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01 April, 2011

घर - दो कविताएं

घर-१

पहले था
एक खुला द्वार
सबके लिए
द्वार के पार
घर की बैठक
बैठक के पार
आंगन
आंगन के पार
भरा पूरा घर

अब-
एक कालबेल है
एक दरवाजा
दरवाजे के पार
ड्राईंग रूम
ड्राईंग रूम में
कई तरह की पेंटिंग्स
फ़िर लॉबी
जिसमें होती है
लॉबिंग
घर के खिलाफ़

घर-२

जहां खड़े हो
वह फ़र्श नहीं छत है
नीचे वाले की
जिसे तुम छत समझ रहे हो
वह फ़र्श है ऊपर वाले का
हंसने की बात नहीं है
यह महानगर है
यहां जो दिखता है
वह होता नहीं
जो होता है
दिखता नहीं

8 comments:

  1. सच्‍ची अभिव्‍यक्ति ।

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  2. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 05 - 04 - 2011
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  3. बहुत उम्दा!!

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  4. सही विश्लेषण ,बधाई

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  5. बिल्कुल सही बात कही है………सटीक चित्रण्।

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  6. बहुत सटीक विश्लेषण

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