शहर में लड़की
खुद बताती है
वह लड़की है
उसने हटवा दिए हैं सारे पर्दे
वह जान गई है सब रिश्तों की गहराई
वह पढ़ चुकी है हर किताब की ऊंचाई
उसने नाप ली है हर हद की लंबाई-चौड़ाई
अब वह नहीं रहती
स्कूल-कॉलिज की चारदीवारी में
वह आने लगी है
अपने मनचाहे पार्क-रेस्त्रां-बाज़ारों में
कहां? कब? किसके साथ?
प्रश्न बेमानी है
लड़की जाग चुकी है
अपना हक मांग चुकी है
हर काम सोच-समझ कर करती है
बच्ची नहीं है
सयानी है।
बच्ची नही है सयानी है। सयानी समझ करे काम तब तो मां बाप की इज्जत बच जानी है। नही तो सब पानी पानी है। यह सही है कि आज लड़कियों को आजादी है पर इसका उपयोग स्वतंत्रता के रूप मे हो न कि स्वच्छंदता के। रचना है भावपूर्ण। बधाई।
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