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18 November, 2011

बुध्द - तीन कविताएं

बुध्द-१

बु्ध्द ने
कभी
किसी से नहीं कहा
बुध्द बनों
जिसने भी देखा बुध्द को
मिला बुध्द से
बुध्द होता गया....
*****

बुध्द-२

मैंने देखा है बुद्ध को
ठीक वैसे ही
जैसे-
देखा होगा यशोधरा ने
बारह बरसों बाद
एक भिक्षु अपने द्वार पर
कहा लोगों ने..
यह बुद्ध है!

देखकर बुध्द को
आंखों में सिमट आए होंगे
पूरे बारह बरस
अंधेरों की अगवानी करती
एक नवजात की किलकारी
घुप्प अंधेरे में

अंधकारमय भविष्य देकर
भागता.....
एक हृदयहीन पति-पिता
बारह बरस बाद
फिर क्यूं यहां?
पूछा होगा यशोधरा के मौन ने

क्यों?
कहां और किस हेतु?
किया, हुआ ऐसा?
वह क्या था जिसे पाने
भटके बारह बरस बीहड़ों में
मिला वहां?
यह कमण्डल....
यह वेश.....
यह विचार...

क्या नहीं मिल सकता था यहां?
था कौन व्यवधान
बताते तो सही
एक बार!
सिर्फ एक बार
इस अकिंचन को
आजमाते तो सही.....

अब क्यों?
क्या रह गया
जो आए
लेने-देने के लिए
यह भिक्षुवेश-भिक्षापात्र
किस काम के
राहुल के लिए....

यही एक मात्र मेरा
अवदान पुत्र राहुल के लिए
सर्वस्व कल्याण राहुल के लिए
तुम भी आओ!
अपना लो यह
केवल मात्र एक सत्य है यह
पाया मैंने जो
पा लो तुम भी वो!!
*****

बुध्द-३

मैंने देखा है बुद्ध को
ठीक वैसे ही
जैसे-
देखा होगा कलिंग ने
बताया होगा कलिंग ने
पूछा होगा कलिंग ने
जिसे देख
हो गए थे बुद्ध
बुद्ध!
तथागत!
मौन!
अनुत्तरित!

आज भी दिखते हैं मुझे
कई कलिंग
अपने आस-पास
पर नहीं दिखता
दूर-दूर तक कहीं
एक भी बुद्ध
होते हुए बुद्ध......!

3 comments:

  1. शुद्ध बुद्ध को रुद्ध मिला जग..

    ReplyDelete
  2. तीनो रचनाएँ अप्रतिम हैं

    नीरज

    ReplyDelete
  3. बेहतरीन भावो का समावेश तीनो मे ही।

    ReplyDelete

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