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11 November, 2011

नित नए ईश्वर

ईश्वर ने
कब घोषित किया
अपने आपको ईश्वर
अपने हितों को साधने के लिए
हम ही रचते, रचाते रहे
अपने-अपने ईश्वर!
अपनी दुर्बलताओं को
धार्मिक आडम्बर में छुपाने के लिए
रचा गया
एक महिमामण्डित भय है ईश्वर
अवतार नहीं
बहुधारी तलवार है ईश्वर!
गूढ जटिल व्यापार है ईश्वर!

मनुष्यता और मानवीय होने के
झूठे विज्ञापन और षडयंत्र
सारे ईश्वरीय मंत्र
हमेशा ही छीनते रहे हैं जो
आदमी से आदमी होने का हक
बहुत ही सम्मोहक
ये ईश्वरीय तंत्र

छीन लेते हैं
जीवन-धर्म, कर्म-मर्म
भर देते हैं
भीतर तक
अजाने-अनंत भरम
जन्मते-जन्माते
नित नए ईश्वर
मानते-मनवाते
नित नए ईश्वर

5 comments:

  1. सटीक रचना ... बहुत अच्छी प्रस्तुति ..हम इंसान ही अपने आपको भ्रमित करने के लिए ईश्वर के अवतार गढ़ लेते हैं ..

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  2. अपने अपने हितों के लिए हम ही रचते है नित नए इश्वर...
    चिंतन के मार्ग को प्रशस्त करती सुन्दर कविता!

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  3. परिभाषाओं से परे है ईश्वर का अस्तित्व।

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  4. बहुत खूब! सचमुच भय से हुई है इश्वर की उत्पत्ति.

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  5. हमेशा ही छीनते रहे हैं आदमी से आदमी का हक़...वाह...बहुत सार्थक रचना...बधाई...

    नीरज

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