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07 December, 2010

स्त्री! स्त्री होना चाहती है

स्त्री!
स्त्री होना चाहती है
हर बेहिसाबी का
हिसाब चाहती है
नहीं चाहती रोना-धोना,
स्वयं को खोना
रातों के अंधेरों में
चुपचाप, निर्विरोध
हमबिस्तर होना
रिश्तों को
सिर्फ़ नाम के लिए ढोना
स्त्री गूंगे होठों पर
जुबान, गान चाहती है
आंखों में अश्रु
जीवन की थकान नहीं
एक चिरंजीव
मुस्कान चाहती है
स्त्री कभी नहीं चाहती
पुरुष होना
अपना अस्तित्त्व खोना
स्त्री!
स्त्री ही रहना चाहती है
बस! अपने को कहना चाहती है
*******

7 comments:

  1. बहुत सटीक और सार्थक रचना ...अच्छी लगी ...

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  2. स्त्री की सच्चे अर्थों में यही सोच है. स्त्री जितनी सहृदय और गहरी संवेदनशीलता को अपने भीतर समाये होती है.. उसकी थाह पाना, नामुमकिन है.. ! स्त्री तो वो 'ई' है जो अगर 'शव' से लगे तो 'शिव' बना देती है.. इसीलिये वो स्त्री रहना चाहती है.. वर्ना शिव का क्या अस्तित्व रह जायेगा.
    सच कहूँ तो इस रचना में समूचे जगत का भूगोल व्यक्त किया है आपने.. स्त्री ही वो केंद्र बिंदु है इस भूगोल का... क्या कहूँ बहुत से विचार कौंध गए आपकी ये रचना पढ़कर, संक्षिप्त में इतना ही कहूँगा कि वाकई बहुत गहरी संवेदनशील और बड़ी नाज़ुक सी मगर सशक्त अभिव्यक्ति की है आपने आदरणीय नवनीत जी. आभार ! नमन !!

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  3. aapne stree ko paribhashit kar uska maan badha diya ...

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  4. बिल्कुल सही कहा …………स्त्री सिर्फ़ स्त्री ही होना चाहती है मगर ये समाज उसे वो भी नही बने रहने देना चाहता…………एक बेहद उम्दा रचना॥

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  5. बहुत खूब ... सच है की स्त्री स्त्री ही रहना चाहती है .. पर ये पुरुष समाज उसे स्त्री छोड़ कर सब कुछ बनाना चाहता है ...

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  6. बहुत सटीक प्रस्तुति..आज की स्त्री की भावनाओं को बहुत सशक्त आवाज दी है..

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