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25 September, 2012

दो कविताएं






मैं जो हूं

मैं
नदी नहीं
रास्ता हूं
जिससे होकर बहती है नदी

मैं
सागर नहीं
तल हूं
जिस पर टिक
लहराता, इतराता है सागर

मैं जो हूं
वह मैं हूं
जो मैं नहीं
होना भी नहीं चाहता वह!
*****

चाह

नहीं चाहता
सपने देखना, दिखाना
भरमना, भरमाना
कोई बहुत बड़ी चाह नहीं है ये
पर कभी पूरी ही नहीं होती
*****

1 comment:

  1. बहुत खूबसूरत...
    मैं सागर नहीं तल हूँ...
    जिस पर टिक कर सागर इतराता है..
    लाजवाब!!!

    अनु

    ReplyDelete

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