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14 April, 2012

दो कविताएं: नवनीत पाण्डे

जो कहीं नहीं है

ये ककहरे
शब्द
वाक्य
भाषा
पूरी किताब
कुछ भी तो नहीं मेरा
ये संज्ञा
सर्वनाम, विशेषण,
रिश्ते-नाते
भावनाएं-कामनाएं
जीवन-प्रपंचों का
पूरा व्याकरण
यहीं से ही तो मिला
इन सबसे इतर
जो भी है
मेरे भीतर-बाहर
मैं हूं
जो कहीं नहीं है
*****

मेरी आग

वे लगे हैं
हर तरफ़ से
हर तरह से
करने को राख
मेरी आग को
करता रहता हूं जतन
उसे ज्वाला बनाने का
यह जानते हुए कि
बहुत खिलाफ़ है मेरे
हवाओं के रुख
फ़िर भी हूं प्रतिबध्द
देती रहती है
भरोसा मुझे
मेरी आग
*****

3 comments:

  1. sundar kavitayen hain.....badhayi.

    ReplyDelete
  2. शब्दों में स्वयं को ढूढ़ने का प्रयास व्यर्थ है, अन्तः ही झाँकना होगा।

    ReplyDelete
  3. Vishnu Sharma, Neeraj Daiya and 6 others like this.

    Ashvani Sharma badhiya kavitayen
    April 14 at 4:58pm · Like

    Sara Misra Ati Sundar
    April 14 at 5:20pm · Like

    Aparna Bhagwat Beautiful expressions Navneetji. Keep the fires burning.
    April 14 at 6:49pm · Like

    Narpatsingh Udawat gar lagaayi hai kuch soch samajh,
    aag vo fir bujhne na do.
    April 14 at 9:43pm · Like

    Sushila Shivran वाह ! "जो कहीं नहीं है" मर्म को छू गई और "मेरी आग" अलग ही भाव-समुद्र में उठते ज्वार भाटा के बीच! बहुत सुंदर भाव और अभिव्यक्‍ति!
    Sunday at 12:27pm · Like

    ReplyDelete

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