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12 July, 2011

स्त्री के मन की किताब..

रोज अलसुबह
सबसे पहले जागकर
सारा घर
बुहारती, संवारती है
लगता है..
वह घर नहीं
घर में रहनेवालों का
दिन संवारती है
रोज गए रात
सबके सो चुकने के बाद
थकी-मांदी
जब बिस्तर पर आती है
उसकी आंखों में नींद नहीं
आनेवाले दिन के
काम होते हैं
स्त्री को पता रहता है
घर में किसे, कब, क्या चाहिए
उसके पास है हरेक के
पल पल का हिसाब
पर कितने घरों में...
कितनों ने पढी होंगी
स्त्री के मन की किताब...?

11 comments:

  1. बहुत सुन्दर और सटीक बात कहती आपकी रचना अच्छी लगी ..

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  2. बहुत मोटी होती है यह किताब, एक दिन में समाप्त ही नहीं होती।

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  3. मन तक पहुंचना ही अपने-आप में एक उपलब्धि है वरना संवेदनहीनता की हद तब देखने को मिलती है जब बस में गोद में बच्चे को उठाये खड़ी महिला पर सीट पर बैठे पुरुष यह टिप्पणी करते हैं कि जब समानता की बात करती हैं तों करें खड़ी होकर यात्रा

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  4. बिलकुल सही फरमाया ,आपने.मैं बिकुल सहमत हूँ आपके कथन से...सटीक रचना ! !

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  5. सच कहा है ... स्त्री के मन को पढ़ना मुश्किल होता है ... और उसे समझना और भी मुश्किल ... आजीवन काम में लिप्त रहती है दूसरों के लिए ..

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  6. बहुत बढ़िया सर.

    सादर

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  7. बहुत कम ही लोग पढ़ पाते हैं .आपने पढ़ी और बखूबी पढ़ी.

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  8. बहुत अच्छा लिखा है....
    वो तो घर का केंद्र है....

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  9. इतनी सुन्दर रचना की तारीफ़ को शब्दों में बांधना सूरज को दिया दिखाने जैसा होगा.. इसलिए बस एक शब्द - लाजवाब !!! :-)

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