बहुत दिनों से
चाहता हूं देखना-
एक तितली
यह भी कोई चाह है!
सोचते होंगे आप..
तितली भी शायद
यही सोचती होगी
पर इन दिनों
सचमुच
यह एक इकलौती चाह
बनी हुयी है मेरी
कि किसी भी तरह, कहीं भी
दिख जाए एक तितली
न गमलों में लगे फ़ूलों पर है
न शहर के पार्कों में
जहां अब पार्क के नाम पर
महज़ कैक्ट्स, या झाड़ रह गए हैं
विकास के ये प्रतिमान
कितने नए हैं
डर है....
सारी तितलियां मर तो नहीं गयी
फ़ूलों को ढूंढते ढूंढते?
और शायद
एक दिन
मैं भी यूं ही पूरा हो जाऊंगा
तितलियां ढूंढते ढूंढते
यही हमारे विकास का प्रतीक है तितली के बिम्ब लिए सुन्दर रचना , बधाई
ReplyDeleteतितली को प्रतीक बनाकर विलुप्त होती प्रजातियों की ओर इशारा करती इस सार्थक कविता के लिए बधाई स्वीकार करें
ReplyDelete----देवेंद्र गौतम
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 29 -03 - 2011
ReplyDeleteको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.blogspot.com/
http://charchamanch.blogspot.com/2011/03/40-469.html
ReplyDeleteआपकी यह प्रस्तुति आज के चर्चा मंच पर भी है
Beautiful !
ReplyDeleteबेहतरीन रचना है आपकी...इस पर आपको अपना एक शेर सुनाता हूँ:-
ReplyDeleteढूंढता फिर रहा फूल पर तितलियाँ
वो शहर में नया है या नादान है
नीरज
गौरैया भी इसी तरह गायब हो रहीं है शहरों से । बहुत अच्छी रचना ।
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