अनहोनियों के होने भर के अंदेशे से
पाल बैठे हैं जाने कितने भय
हर तरफ़ संशय ही सशंय
कितने अर्थ ढूंढते हैं एक शब्द के
बरतते अपने अपने माफ़िक
बांचते बांचते मुस्कराहट चेहरों की
गढने लगते कथाएं
क्षुद्र मानसिकताओं की
रचने लगते डरावने चेहरे
अपनी भयग्रस्त
सोच के कैनवास पर
चुपचाप देखते हैं बेशर्मी से!
सोच के सामुहिक बलात्कार
चीख चीख कर बताते हैं
सारे नाम अखबार
व्यर्थ सारे प्रतिकार
पहले से ही लिख दी गई है हार
जय सरकार! जय सरकार!!
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (28-4-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
gambhir ,sanchetan samvedana ,mukharit ho rahi hai . achha laga ji .dhanyvad .
ReplyDeleteजय नवनीत ! जय नवनीत !!
ReplyDeleteसुन्दर कविता , लगभग गीत !!
अच्छा कटाक्ष ..
ReplyDeleteBahut hi prabhaavi rachna ... aaj kuch kuch aisa hi samay hai ...
ReplyDeleteबहुत सटीक कटाक्ष...
ReplyDelete