१
मेरा रिश्ता संज्ञाओं से नहीं
क्रियाओं से हैं
मेरा वास्ता मंजिलों से नहीं
रास्तों से हैं
अकेला तो कोई भी हासिल कर सकता है, कुछ भी
मेरा दोस्ताना तो काफ़िलों से हैं
२
देखा है....
पुजते मंजिलों को
रास्तों की कभी
जयकार नहीं देखी
क्या हुआ जो नहीं पहुंचे वहां तक
हौसलों की कभी
हार नहीं देखी
दोनों रचनाएँ बहुत सुन्दर ..
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