तलाश है उस घर की
जिस में लगे कुछ
घर जैसा
न तुम दिखो
संदेहों और
अविश्वासों से घिरी
न मैं रहूं
भयाक्रांत
आशंकाओं से डरा
मिल सकता है हमें क्या
घर ऎसा?
वह घर
सिर्फ़ हो घर
किसी अनहोनी को
जिसकी कभी भी न लगे खबर
न ही
किसी नज़र की नज़र
जिसके सपनों में भी
हकीकतें ही दिखे
हम क्या होना चाहते हैं
यह नहीं
हम
क्या से क्या हुए हैं
यह दिखे....
बहुत सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति..
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