मार दिया जाऊंगा
कि मर जाऊंगा
इतना तय है
कइयों को सुखी कर जाऊंगा
खतम हो जाएंगे
मेरे होने के
कई दुख मेरे साथ ही
खुलकर हंसेंगे कई चेहरे
बोलेंगे खुलकर
सोचेंगे खुलकर
कितनों को दे जाऊंगा
एक नया जीवन
मैं मरकर
नहीं कोई आरोप मेरा
किसी पर
जानता, मानता हूं
खड़ा रहा हूं जीवन भर
सब के कटघरे में
आरोपित होकर
पढी हैं सबकी भावनाएं
मेरे लिए मनोकामनाएं
व्यर्थ है कोई भ्रम पालूं
अब कहां रहा माद्दा
कि खुद को संभालूं
सारी दुश्वारियों, बीमारियों के बीज
मैने खुद ही तो बोए हैं
अच्छी तरह जानता हूं
मेरे जन्म की खुशी में
थाली बजानेवाले
मेरे मर जाने के दु:ख में
कितना रोए हैं
लगता है कुछ आखिर की पंक्तियाँ दो बार लिख दी गयी हैं ...
ReplyDeleteकविता मर्म को छूती है .. कटु सत्य को कहती अच्छी रचना
आपने सच कहा संगीता जी! अंतिम पंक्ति से पहले कुछ पंक्तियां दोबारा पेस्ट हो गयी थी..गंभीर त्रुटि है, क्षमाप्रार्थी हूं..आभार आप जैसे सजग पाठक का
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