स्त्री!
स्त्री होना चाहती है
हर बेहिसाबी का
हिसाब चाहती है
नहीं चाहती रोना-धोना,
स्वयं को खोना
रातों के अंधेरों में
चुपचाप, निर्विरोध
हमबिस्तर होना
रिश्तों को
सिर्फ़ नाम के लिए ढोना
स्त्री गूंगे होठों पर
जुबान, गान चाहती है
आंखों में अश्रु
जीवन की थकान नहीं
एक चिरंजीव
मुस्कान चाहती है
स्त्री कभी नहीं चाहती
पुरुष होना
अपना अस्तित्त्व खोना
स्त्री!
स्त्री ही रहना चाहती है
बस! अपने को कहना चाहती है
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बहुत सटीक और सार्थक रचना ...अच्छी लगी ...
ReplyDelete... bahut sundar !!!
ReplyDeleteस्त्री की सच्चे अर्थों में यही सोच है. स्त्री जितनी सहृदय और गहरी संवेदनशीलता को अपने भीतर समाये होती है.. उसकी थाह पाना, नामुमकिन है.. ! स्त्री तो वो 'ई' है जो अगर 'शव' से लगे तो 'शिव' बना देती है.. इसीलिये वो स्त्री रहना चाहती है.. वर्ना शिव का क्या अस्तित्व रह जायेगा.
ReplyDeleteसच कहूँ तो इस रचना में समूचे जगत का भूगोल व्यक्त किया है आपने.. स्त्री ही वो केंद्र बिंदु है इस भूगोल का... क्या कहूँ बहुत से विचार कौंध गए आपकी ये रचना पढ़कर, संक्षिप्त में इतना ही कहूँगा कि वाकई बहुत गहरी संवेदनशील और बड़ी नाज़ुक सी मगर सशक्त अभिव्यक्ति की है आपने आदरणीय नवनीत जी. आभार ! नमन !!
aapne stree ko paribhashit kar uska maan badha diya ...
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा …………स्त्री सिर्फ़ स्त्री ही होना चाहती है मगर ये समाज उसे वो भी नही बने रहने देना चाहता…………एक बेहद उम्दा रचना॥
ReplyDeleteबहुत खूब ... सच है की स्त्री स्त्री ही रहना चाहती है .. पर ये पुरुष समाज उसे स्त्री छोड़ कर सब कुछ बनाना चाहता है ...
ReplyDeleteबहुत सटीक प्रस्तुति..आज की स्त्री की भावनाओं को बहुत सशक्त आवाज दी है..
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