जो कभी भाव नहीं पूछते
चुका देते हैं मुंहमांगे दाम
वे लोग!
नहीं होते आम
उन्हें पसंद और चीज़ों से मतलब हैं
भले ही कुछ भी हों दाम
वे कुछ भी
कभी भी खरीद सकते हैं
खरीदते ही हैं
जब-तब
हार ही जाते हैं
सारे कानून, अधिकार
प्रतिकार
जब-तब
बेहद अच्छी रचना है ! इस आर्थिक युग में आजकल मध्यमवर्ग भी इस बिना मोलभाव की बीमारी से ग्रसित हैं क्योंकि भाव नहीं पूछना भी आजकल स्टेटस सिम्बल बन चुका है.. ! समसामयिक विषय पर केन्द्रित एक उम्दा रचना के लिल्ये बढ़ा. आभार !!
... bahut sundar !!!
ReplyDeleteबहुत सच्ची और अच्छी बात कही है आपने अपनी रचना में..बधाई...
ReplyDeleteनीरज
बढ़िया…
ReplyDeleteबढ़िया…
ReplyDeleteबेहद अच्छी रचना है ! इस आर्थिक युग में आजकल मध्यमवर्ग भी इस बिना मोलभाव की बीमारी से ग्रसित हैं क्योंकि भाव नहीं पूछना भी आजकल स्टेटस सिम्बल बन चुका है.. ! समसामयिक विषय पर केन्द्रित एक उम्दा रचना के लिल्ये बढ़ा. आभार !!
ReplyDeleteनवनीत जी,
ReplyDeleteदामों पर कानून का हार जाना बिना किसी प्रतिकार के मन को छू लेता है, बहुत ही धीमे से लेकिन करारी चोट करती हुई कविता।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
sateek aur saarthak rachna ke liye badhai!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
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