देह तो मात्र स्थायी है
इतने बिम्ब
प्रतीक गढे तुमने
जाने क्या-क्या
कसीदे पढे तुमने
पर पढ न पाए
एक बार भी मन
लिख ही न पाए कभी मन
केवल देह तो नहीं थी मैं!
देह तो मात्र स्थायी है
उस गीत के अंतरे की
जिसे सुना तुमने देह से
और केवल स्थायी
नहीं हो सकता
एक मुक्कमल गीत
बिना अंतरे के
सुनो!!
स्थायी के साथ
अंतरा भी सुनो!
पूरा गीत सुनो!!
केवल...
केवल स्थायी नहीं!!
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यह नरक सा स्वर्ग कब चाहा था उसने
वह बोलती
पर किसी को सुनाई नहीं देता
वह रोती
किसी को दिखाई नहीं देता
उसकी हंसी
खतम हो गयी थी कुंवारेपन के साथ ही
कुछ भी तो नहीं था ऎसा
जिसे कह सके अपना
घर:एक सपना
जो कागज़ों में था उसके नाम
जिसमें सब थे सिवा उसके
जो सबका था
सिवा उसके
सुबह से शाम
सबके लिए खटते-खटते
सबके लिए लड़ते-लड़ते
फ़ुर्सत ही कब दी किसी ने
अपने लिए कुछ करने की,
लड़ने की
हमेशा ही रही
पीहर में बहन-बेटी
ससुराल में पत्नि-बहू
किसी ने भी नहीं महसूसा
उसकी शिराओं में बहता लहू
यह नरक सा स्वर्ग
कब चाहा था उसने
फ़ूलों के बीज़ दिखाकर
बाहर-भीतर
ये कैक्टस बोए किसने?
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दोनों रचनाएँ बहुत अच्छी लगीं .... गहन भाव लिए हुये ... नारी के हृदय को कहती हुई सुंदर रचनाएँ
ReplyDeletebahut sundar...stree man ki vyathaa ko baakhoobii chitrit kiyaa hai,aapne.badhaai sweekaarein.
ReplyDeleteसंबंधों की कविता..दोनों ही...
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteआपको होली की सपरिवार हार्दिक शुभकामनाएँ।
सादर
प्रभावी व सुन्दर रचना..
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