(स्व.जनकवि-गीतकार मोहम्मद सदीक को समर्पित)
जानता है सब मगर, बोलता नहीं
आम-आदमी जुबान खोलता नहीं
है उसे मालूम, क्या हो रहा है क्यूं
उसका भाग, ये अंधेरे ढो रहा है क्यूं
उसका घर, सुख क्यूं टटोलता नहीं
दीन-हीन बेटे उसके, मरे जेल में
कौन है असल खिलाड़ी, मौत-खेल में
जाने हर कोई, होंठ खोलता नहीं
छोड़े थे कुत्ते चोरों की, सूंघ के लिए
कुत्ते सारे हाकिमों के, घर को हो लिए
पालतू हरेक कुत्ता, भौंकता नहीं
जानता है सच वह, हड़ताल-बंद का
वही भोगता है दंड, इस अफ़ंड का
भूख-मुफ़लिसी को कोई, मौलता नहीं
बोले तो अंजाम क्या, जानता है वो
अपनी क्या औकात, पहचानता है वो
घाव सरेआम अपने, खोलता नहीं
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आम आदमी का मर्म बखानती कविता...
ReplyDelete"बोले तो अंजाम क्या, जानता है वो
ReplyDeleteअपनी क्या औकात पहचानता है वो
घाव सरे आम अपने खोलता नहीं
सीधे मर्म पर चोट! अति सुंदर
इस दुनिया में अनैतिक और अन्याय इसलिए अधिक नहीं कि बुरे लोग अधिक झैं बल्कि इसलिए अधिक है कि सहने वाले, चुप रहने वाले अधिक हैं। सादर
अच्छी कविता है.
ReplyDelete.
ReplyDeleteआपकी स्थापित पहचान से अलग रचना है …
बधाई !