कवि का मन
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17 December, 2011
हो जाऊं खुद ही कलम
सम्भालता रहता हूं जड़ें
पेड़ों को, हरा-हरा रखने के लिए
हो जाना चाहता हूं चाक
अनगढ मिट्टी को, गढने के लिए
सपनें हो जाए गर हकीकत
मौका ही न दूं, आंसुओं को बहने के लिए
चाहता हूं हो जाऊं खुद ही कलम
ज़िंदगी के सफ़ों की, कविता लिखने के लिए
1 comment:
प्रवीण पाण्डेय
18/12/11 11:57 AM
जीवन को कलम बनाकर काश लिखना हो पाता, बहुत ही सुन्दर और गहरे भाव।
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जीवन को कलम बनाकर काश लिखना हो पाता, बहुत ही सुन्दर और गहरे भाव।
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