अंतहीन
जो देता है मुझे
क्या देता हूं मैं उसे
सिवाय कुछ
संभावनाओं के
जो देने ही से आरंभ होकर
देने पर ही
कब हुयी खतम
देना
और देते रहना
अंतहीन
जैसे
लेना
और लेते रहना
अंतहीन
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अपना यह घर!
तुम लिखते
बुनते जाल
रचते-रचाते
तिलिस्म शब्दों के
भरमाते
खुद को
सबको
मैं लिखता
अर्थ!
रचता
भीतर का बाहर
बाहर का भीतर
कुछ भी नहीं
सांस से इतर
तुम भटकते
सारा जहान
अनदेखा कर
अपना घर
ढहाते-बनाते
नित नए घर
पर मुझे तो
हर आंख में
दिखता
एक घर
जोहता बाट
एक घर की
जरा देखो तो सही
एक बार
अपना यह घर!
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सारे आदान प्रदान आदि हैं, अनंत हैं।
ReplyDeleteबहुत अच्छी भावपूर्ण रचना..बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteनीरज