मां रोका, टोका करती थी
कई बातों के लिए
पर नहीं मानता था
नहीं जानता था
मां क्यूं रोक, टोक रही है?
क्या इसलिए कि
मां ने देख रखी थी दुनिया
मुझे भी दिखाना चाहती थी दुनिया
और बचाना चाहती थी मुझे उन भूलों, शूलों से
या मां बचना चाहती थी खुद
उस अनहोनी से
जो हो सकती थी मेरी करतूतों से
कितनी ही सीखें दी थी मां ने
किसी लायक बनाने के लिए
पर मैं नालायक ही रहा
अपनी ही राह चलता रहा
न जाने क्यूं?
किस सांचे ढलता रहा
मां ने भी आखिर
कर लिया स्वीकार
थक थकाकर मान ली थी हार
साध लिया मौन
जब भी पुकारता हूं-मां! मां!
मां पूछती है- कौन?
नवनीत जी इस अप्रतिम रचना के लिए मेरी ढेरों बधाई स्वीकारें...
ReplyDeleteनीरज
नमस्कार !
ReplyDeleteमाँ कि दुआए कभी खाली नहीं जाती , माँ कि बात कभी टाली नहीं जाती ' जो नहीं मानता वो अपूरण ही रहता है ,
सादर