ईश्वर ने
कब घोषित किया
अपने आपको ईश्वर
अपने हितों को साधने के लिए
हम ही रचते, रचाते रहे
अपने-अपने ईश्वर!
अपनी दुर्बलताओं को
धार्मिक आडम्बर में छुपाने के लिए
रचा गया
एक महिमामण्डित भय है ईश्वर
अवतार नहीं
बहुधारी तलवार है ईश्वर!
गूढ जटिल व्यापार है ईश्वर!
मनुष्यता और मानवीय होने के
झूठे विज्ञापन और षडयंत्र
सारे ईश्वरीय मंत्र
हमेशा ही छीनते रहे हैं जो
आदमी से आदमी होने का हक
बहुत ही सम्मोहक
ये ईश्वरीय तंत्र
छीन लेते हैं
जीवन-धर्म, कर्म-मर्म
भर देते हैं
भीतर तक
अजाने-अनंत भरम
जन्मते-जन्माते
नित नए ईश्वर
मानते-मनवाते
नित नए ईश्वर
सटीक रचना ... बहुत अच्छी प्रस्तुति ..हम इंसान ही अपने आपको भ्रमित करने के लिए ईश्वर के अवतार गढ़ लेते हैं ..
ReplyDeleteअपने अपने हितों के लिए हम ही रचते है नित नए इश्वर...
ReplyDeleteचिंतन के मार्ग को प्रशस्त करती सुन्दर कविता!
परिभाषाओं से परे है ईश्वर का अस्तित्व।
ReplyDeleteबहुत खूब! सचमुच भय से हुई है इश्वर की उत्पत्ति.
ReplyDeleteहमेशा ही छीनते रहे हैं आदमी से आदमी का हक़...वाह...बहुत सार्थक रचना...बधाई...
ReplyDeleteनीरज