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29 May, 2015

भले घर की लड़कियां - नवनीत पाण्डे

भले घर की लड़कियां 

 

बहुत भली होती हैं

यह बात अलग है

भले घर की लड़कियां

नहीं जानतीं

भला क्या होता है

सिवाय इसके कि

जो घरवालों द्वारा

उनके दिमाग में

ठोंक_ ठोंक

बैठा दिया जाता है

तरह- तरह से

सिखा, पढ़ा

समझा दिया जाता है

अनचाहा कराया जाता है

उसी को भला कहा जाता है 

 

भले घर की लड़कियों के मुंह में

ज़ुबान नहीं होती

होती भी हैं तो

उन्हें रोक- टोक

दिया जाता है

बिना पूछे

कुछ भी बोलना

कहना मना होता है

 

भले घर की लड़कियों  के

सिर्फ कान होते हैं

उन्हें सिर्फ कहा हुआ

सुनना, गुनना और

करना होता है

भले घर की

लड़कियों की

न हंसी

गालों पर दिखती है

न आंसू

हंसना- रोना

दोनों ही

बेआवाज़

चुपचाप होता है 


भले घर कीलड़कियों की आंखों

और ज़ुबान पर

पहला हाथ

उनकी मांओं का ही होता है

भले घर की लड़कियों को

उनकी मांए

अपनी ही तरह

उन्हें सबसे पहले उठने

और सबके बाद

सोने की घुटी पिला देती है 


भले घर की लड़कियों के घर

घर नहीं

धर्म, नैतिकता,

आदर्शों युक्त

स्नेह, प्रेम भरे

आदेशों, कानूनों की

खाप होते हैं 


भले घर की लड़कियों के घरों में

भले घर की लड़कियों के लिए

सिर्फ दूर दर्शन होता है

उन्हें केवल

धार्मिक स्थलों, मेलों

भजन, कीर्तन, कथाओं में ही

जाने की अनुमति होती है

वह भी परिवार-जनों के साथ

उन्हें हर खबर से

बेखबर रखा जाता है

मोबाइल तो बहुत बड़ी बात है

वें घर में रखे टेलीफोन की

घंटी भी नहीं सुन सकतीं 


भले घर की लड़कियां

झाड़ू- मसौदे

चौका- बासन

कपड़े-लत्ते

धोने से लेकर

सीने- पिरोने

कढ़ाई- बुनाई

गृहिणी के

हर काम में

पारंगत होती हैं

 

भले घर की लड़कियों की पढ़ाई

घर में ही या

उतनी ही होती है

जितनी में वें

भली रह सकें

 

भले घर की लड़कियां

अपने नहीं

अपने परिवार

समाज की

सोच से जीती है

उन्हीं के इशारे

चलती- फिरती

उठती- बैठती

ओढ़ती- पहनती

जीती-मरती हैं

 

भले घर की लड़कियों के

घर में अलग से

कमरे नहीं होते

होते भी हैं तो

उनकी खिड़कियां

चौकस बंद होती हैं

और उन पर

मोटे- मोटे पर्दे भी

 

भले घर की लड़कियां

हमेशा निगरानी में रहती हैं

अकेली

कहीं नहीं आती- जाती

भेजीं जाती

भले घर की लड़कियां

घर से बाहर

सिर्फ घर के काम  से

आती- जाती हैं

अपने काम से

जाने के लिए

सबको बताना पड़ता है

क्या काम है

कितनी देर लगेगी

साथ में कौन जा रहा है 


भले घर की लड़कियों की

बहुत कम सहेलियां होती हैं

वे भी गली-मुहल्ले

रिश्तेदारी की

लड़कों के तो

पास भी नहीं फटकने दिया जाता

 

भले घर की लड़कियां

अपने मन का कुछ नहीं करती

अपने वर्तमान-भविष्य

यहां तक कि

जीवन- साथी का चयन

जीवन के इससे भी बड़े

अहम फैसले भी

घर- परिवार पर

छोड़ देती हैं

 

भले घर की लड़कियां

लड़कियां नहीं

खूंटें बंधी गाएं हैं

जिन्हें बहुत प्रेम, डर से

एक उम्र तक

उनके पालक दुहते हैं

और अनचाही उम्र में

जननी-जनकों द्वारा

अक्ल निकाल, बुध्दु बना

साज- श्रृंगार कर

गुड़िया बना 

गाजे- बाजे के साथ

अग्नि को साक्षी मान

सात चक्कर कटा

डोली में बैठा

उन अनजान

नितांत अपरिचित

गुड्डों के साथ

(जो हकीकतन अधिकतर भले गुंडे होते हैं)

चलती कर दी जाती हैं

 

इस तरह

भले घर की लड़कियां

एक कारा

एक नरक से निकल

दूसरी कारा

दूसरे नरक में पहुंच जाती है

और इस तरह

भले घर की लड़कियां

सौभाग्यवती कहलाती हैं

जन्म से मृत्यु तक

वरदान के रूप

अपने भले होने की

सज़ा पाती हैं

 

भले घर की लड़कियां

इतनी भली होती हैं

कि आखिर में

जब थक- हार जाती हैं

असहनीय हो जाता है

बोझ भलेपन का

कानोकान खबर नहीं होती

झूल जाती हैं फंदों से

खा लेती हैं ज़हर

खतम कर लेती हैं

अपनी इह लीला

 

भले घर की लड़कियां

जब लेती हैं लोह

करती हैं विद्रोह

भलेपन के खिलाफ

पत्थरों से

सिर फोड़ने की बजाय

भाग जाती हैं

भलेपन की काराएं तोड़

वें नहीं रहतीं भली

ठहरा दी जाती हैं

पापिन, कुलच्छनी

घर -परिवार

धर्म- समाज

कोसता है उन्हें

उनके जन्म को

"काहे की भली

बदनाम कर दिया

नाक कटा दिया

बड़ी बेहया

नालायक निकली"

*******

-नवनीत पाण्डे

 

07 June, 2014

देख! नागार्जुन बाबा व अन्य कविताएं



बीस रुपए प्रति लीटर 


गंगा! आजकल
हिमालय,
हरिद्वार,
इलाहाबाद,
बनारस में नहीं
प्लेटफार्म,
बस स्टैंड,
बाजार की
बंद बोतल में है
बीस रुपए प्रति लीटर
+++++++

अपने समय के ऊंट
(दल- बदलुओं से क्षमा सहित) 

अपने समय के
ऊंट हैं वे
जगह- मौके देख!
करवट बदल लेते हैं
+++++++

फिर काम आने के लिए 

हम सिर्फ़ औज़ार भर हैं
तुम्हारे हाथों के
जिन्हें तुम अपने मतलब,
समय- असमय
तेल, धार दे
रंवा करते रहते हो
जैसे, जहां काम लोगे तुम
काम आएंगे हम
हम तो हैं ही
बस, काम आने के लिए
जैसे ही पूरे होंगे
तुम्हारे मंसूबे
रख दिए जाएंगे संभाल कर
फिर उसी टूलबॉक्स में
फिर काम आने के लिए
+++++++

देख! नागार्जुन बाबा

देख! नागार्जुन बाबा
कांव कांव कर कागा
मार चोंच फ़िर भागा
बिन छेदों की सुइयां
क्या करेगा धागा
नागा रहेगा नागा
बेसुरे इक्कठ्ठे सारे
बाजे डफ़ली बाजा
गाते राग अरागा
चोर मौसेरे डाले
लोकतंत्र घर डाका
जनपथ ठगा अभागा
+++++++

ये सड़कें थोड़े ही हैं

इन सड़कों का कोई इतिहास नहीं है
ये अचानक ही प्रकट हुयी हैं
जिन पर
धकियाया जा रहा है हमें
छूने को वे सपनीली
रोशनियों भरी मीनारें
जो अपने भीतर
न जाने कितने अदेखे
अंधेरे समेटे हैं
और कोई रास्ता,
चारा नहीं है
हमें इन्हीं पर चलना होगा
भले ही यात्राएं
न हों निरापद
इनके टोल भरना होगा
इन अंधेरों को ढोना ही है
जानते हुए कि देर- सवेर
ये सड़कें टूट ही जानी हैं
ये सड़कें थोड़े ही हैं
योजनाकारों-निर्माताओं,
उद्घाटनकर्ताओं के बीच हुयी
दुरभिसंधियों की
अदेखी-अलेखी कहानी है
+++++++

अब! सिर्फ़

होते ही सूर्यास्त
वे चांद निकल पड़े
अपने- अपने राज- प्रासादों से
राजहंसों पर सवार हों
शिकार पर
धीरे- धीरे, बेआवाज़
और जुट गए
चुपचाप!
अंधेरों की आगोश में
फ़ैली बस्तियों में
टिमटिमाती लालटेनों, दीयों
मोमबत्तियों की बातियों
रोटियां सेंक रहे
चूल्हों के सीनो में
धधक रही आग को
एक -एक कर बुझाने में
तब तक,
जब तक....
धरती पर पसरी
अंधेरी रातों का
दिपदिपाता
वह आसमान
पूर्णत:
सितारों विहीन
घुप्प अंधेरो में डूब
बियाबान नहीं हो गया
अब! सिर्फ़
न खतम होनेवाली
रात बची है
अपने घुप्प अंधेरों में
रुदन करती हुयी
या
उन चांदों की चमचमाती आंखे
अपने राज- प्रासादों की
रोशनियों में
लालटेनों, दीयों,
मोमबत्तियों
और चुल्हों की बुझी आग
अपनी आंखों में भरती हुयीं
+++++++

12 January, 2014

गज़ल जैसा कुछ - फूल मत तोड़ो खुश्बू कहती हैं

गज़ल जैसा कुछ


फूल मत तोड़ो खुश्बू कहती हैं

जान इन में ही मेरी बसती है
फूल मत तोड़ो खुश्बू कहती हैं

ये जो टूटा तो टूट जाऊंगी मैं
सुर को मत तोड़ो राग कहती है

जो नहीं आती कभी होठों पर
बातें हर दिल में ऐसी रहती है

है नहीं चाहत जिन्हें समंदर की
ऐसी नदियां भी इधर बहती है

आंख पढ लें न झूठ आंखों का
आंख से बच के आंख रहती है

वह तो फूला है फलों फूलों पर
पेड़ क्या जाने जड़ क्या सहती है

चंद महलों की रोशनी के लिए
जाने कितनों की बस्ती जलती है

है मुक्कमल कौन दुनियां में
कोई न कोई कमी तो रहती है

हम भी सूरज कि चांद हो जाएं
हर सितारे के दिल ये रहती है

गया कहां था बता तो जाता
घर में घुसते ही मां ये कहती है

जो जलाते हैं हवाओं में दीए
उनकी अंधेरों से ठनी रहती है
*****


वो उन्हें, वो उन्हें, पार लगाते रहे।


वो उन्हें, वो उन्हें, दम दिखाते रहे।
एक दूजे को यूं, आजमाते रहे।

था सबको पता, असल में कौन क्या?
नूरा कुश्ती सभी को, दिखाते रहे।

करते भी और क्या, नाव जो एक थी
वो उन्हें, वो उन्हें, पार लगाते रहे।

बोलती हुयी बंद, जब खुले राज ए यार
बंट खाते रहे, कसमसाते रहे।

पूछा! कामरेड, ये पोलिटिक्स है क्या?
बात घुमाते रहे, मुस्कराते रहे।
*****

चक्कर क्या है?

देख के भी,  अनदेखा करते थे जो 
आज रहे चल के पुकार, चक्कर क्या है?

दिया न उत्तर कभी सलाम का 
आज चल के खुद नमस्कार, चक्कर क्या है?

मूंह फुलाए ही दिखे हमेशा
आज जता रहे इतना प्यार, चक्कर क्या है?

रहे बोल में बारह आने
आज होंठ बहे रसधार, चक्कर क्या है?

कल तक हमें बताते कमतर
आज हमारी रहे बघार, चक्कर क्या है?

नहीं थी हमारी जिन्हें दरकार
आज मनुहारों पर मनुहार, चक्कर क्या है?


08 September, 2013

खिलाफ़ों के खिलाफ़

जैसी भी है अपनी खुश्बू

कभी नहीं मुरझाता
न ही सूखता
फ़ेंका जाता
कचरे मानिंद

खिला रहता
बिखेरता रहता
अपनी सीमाओं में
जैसी भी है अपनी खुश्बू

अगर तुमने
तोड़ा न होता!
*****

देखना! तुम!

भले ही छीन लो पतवार
छोड़ दो बीच मझधार
खिलाफ़ धार के
फ़िर भी हम 
होगें पार
देखना! 
तुम!
*****

खिलाफ़ के खिलाफ़

खिलाफ़ हवाओं के
कब रहा आसान 
भरना उड़ान
पाना आसमान

फ़िर भी उड़ता हूं
हवाओं के खिलाफ़
आसमान के खिलाफ़
और सारे 
खिलाफ़ों के खिलाफ़
*****

पता चला-

जिन्हें हमेशा मैंने 
अपने भीतर 
मिश्री सा सहेजे रखा 

पता चला-

उन्होंने मुझे 
अपने भीतर तो क्या
आस-पास, दूर-दूर भी 
नहीं देखा-रखा
*****

ठीक

सिर्फ़ तुम्हारे
और मेरे मानने से
ठीक नहीं होगा ठीक
ठीक तभी है ठीक
जब सभी मानें ठीक
*****

07 April, 2013

जैसे जिनके धनुष व कुछ अन्य कविताएं


मेरी कलम

मेरी कलम
मेरी थाती है
हर मोर्चे पर
केवल
और केवल
वही मुझे बचाती है
*****

कविता- १

शब्द नहीं है कविता
पर
शब्द से बाहर भी
कहां है कविता?
*****


कविता - २

कविता 
शब्द में नहीं 
उस पाठ- पाठी में होती हैं
जिन्हें कविता से लगते हैं शब्द!
एक शब्द में भी हो सकती है 
एक भरपूर, पूरी, 
मुक्कमल कविता
हो सकता है- 
सैंकड़ों कविताओं के संग्रह में
न हो एक भी कविता
*****


ढके-छिपे सच!

लुभाते हैं
ललचाते हैं 
कुछ शीर्षक
मुख पृष्ठ
अपनी तड़क-भड़क से
पर 
जब खुलने लगते हैं 
भीतर के 
पृष्ट दर पृष्ट
आ ही जाते हैं चौड़े
सारे ढके-छिपे सच!
*****



जैसे जिनके धनुष हैं

न तुम कम
न मैं कम
वह भी कम नहीं वीर
जैसे जिनके धनुष, 
वैसे उनके तीर
*****


09 January, 2013

तोड़ रहा हूं आज मैं सारे,सन्नाटे के छंद


गीत जैसा कुछ

तोड़ रहा हूं आज मैं सारे,सन्नाटे के छंद
आज खोल के ही मैं रहूंगा, सब दरवाजे बंद

बहुत घुट चुका अब न घुटूंगा, अंधेरी काराओं में
अब न कभी आरोपित हूंगा, तेरी इन धाराओं में
आज उड़ के ही  मैं  रहूंगा, अपने आकाश स्वच्छंद

हदें हो चुकी सारी बेहद, अब न गुलामी होगी
केवल अपनी राह चलूंगा, अब न नाकामी होगी
आज छंटेगें सारे कुहरे, मिट जाएंगे द्वंद

होगा हर रोधी का विरोध, रुदन नहीं अब होंगे गीत
बीत गई सो गई बीत, अब तो केवल, केवल जीत
जुड़े हाथ, हो रहे मुठ्ठियां, तोड़ के सारे बंद
 *****

25 September, 2012

दो कविताएं






मैं जो हूं

मैं
नदी नहीं
रास्ता हूं
जिससे होकर बहती है नदी

मैं
सागर नहीं
तल हूं
जिस पर टिक
लहराता, इतराता है सागर

मैं जो हूं
वह मैं हूं
जो मैं नहीं
होना भी नहीं चाहता वह!
*****

चाह

नहीं चाहता
सपने देखना, दिखाना
भरमना, भरमाना
कोई बहुत बड़ी चाह नहीं है ये
पर कभी पूरी ही नहीं होती
*****
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